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कारक तथा विभक्ति
उसकी करणत्व-विवक्षा भी होती है। वैसे वह अधिकरण तो है ही। इसी प्रकार अभाव को भी बुद्धि से निरूपित करके द्रव्याकार में देखते हुए कारक-व्यवहार करते हैं--'आत्मानमात्मना वेत्सि' ( कुमार० २।१० )। आत्मा से भिन्न न तो कोई करण है, न कर्म, तथापि भेद की कल्पना की गयी है। बुद्धि के द्वारा एक पदार्थ भी भिन्न किया जा सकता है और भिन्न पदार्थों को भी एक रूप में देखा जा सकता हैं । अभिरूपता ( सुन्दरता )-धर्म की समानता पंचाल तथा कुरु जातियों में है-बुद्धि की यह एकता यदि वक्ता को अभीष्ट न हो तो अतिशय अभिरूपता के कारण विभाग करने पर 'पंचाल-जाति कुरु-जाति से अधिक अभिरूप है' ऐसा प्रयोग होता है।
सभी कारक क्रिया-निष्पत्ति मात्र के प्रति कर्तत्व-शक्ति धारण करते हैं, किन्तु जब उनके व्यापारों का भेद विवक्षित होता है तब करणत्वादि शक्तियाँ उत्पन्न होती है
'निष्पत्तिमात्रे कर्तत्वं सर्वत्रवास्ति कारके।
व्यापारभेदापेक्षायां करणत्वादिसम्भवः'२ ॥ -वा० प० ३।७।१८ इसका दृष्टान्त दिया जाता है कि पुत्र के जन्म के लिए माता-पिता दोनों कर्ता हैं, किन्तु जब भेद-विवक्षा होती है तब इस प्रकार प्रयोग होते हैं-( क ) अयमस्यां जनयति तथा ( ख ) इयमस्माज्जनयति । अभेद-विवक्षा में कहा जाता है-'पितरौ पुत्रं जनयतः' । इसी प्रकार मनु का यह प्रयोग भी सिद्ध होता है-'ब्राह्मणाद् वैश्यकन्यायामम्बष्ठो नाम जायते' ( मनु० १०८)। ___ करण का निरूपण करने के समय भी भर्तहरि विवक्षा-शक्ति का स्मरण करा देते हैं कि कोई वस्तु सदा करण ही रहेगी-ऐसा नियम नहीं, क्योंकि अधिकरण के रूप में प्रसिद्ध स्थाली का करणरूप देखा जाता है। अतः सभी कारक विवक्षा के द्वारा, जिसे बुद्धि की अवस्था कह सकते हैं, प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार कई स्थानों पर भर्तृहरि विवक्षा-शक्ति का निर्देश करते हैं, जिनका वर्णन हम तत्तत् कारकों के विचार के समय करेंगे।
यह सत्य है कि विवक्षा के कारण कारकों का व्यत्यय होता है, किन्तु प्रयोक्ता इस विषय में स्वच्छन्द नहीं है कि जहाँ-तहाँ विवक्षा का दुरुपयोग करता रहे । विवक्षा के लिए तीन आवश्यक बातें हैं१. 'बुद्धचकं भिद्यते भिन्नमेकत्वं चोपगच्छति' ।
-हेलाराज ३, पृ० २३४ पर उद्धृत । २. 'तथा हि साधनान्तरविनियोगव्यापारः कर्ता। निर्वत्ति-विकार-प्राप्त्याहितसंस्कारं कर्तुः क्रिययेप्सिततमं कर्म : ...."इत्यादि'। -हेलाराज ३।७।१८ पर
३. वा०प० ३।७।१९। ४.बा. प. ३१७९१ ।