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कारक तथा विभक्ति
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में दो बार पढ़ता है - अर्थ का प्रयोग ) शेष - विवक्षा नहीं होने पर अधिकरण के अनुसार सप्तमी विभक्ति होती है - 'द्विरहन्यधीते' |
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( ट ) यदि धातु में कृत्-प्रत्यय लगे हों तो कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है ( कर्तृकर्मणोः कृति – २।३।६५ ) । यथा – कृष्णस्य कृति : ( कर्ता में ) । धनस्य दानम् ( कर्म में ) । तिङ् प्रत्यय लगने पर इनमें प्रथमा द्वितीया होगी - कृष्णः करोति । धनं ददाति । जब उपर्युक्त नियम से कृत् के योग में युगपत् कर्ता तथा कर्म की प्राप्ति हो तब केवल कर्म में ही षष्ठी होती है, कर्ता में नहीं- शिशुमा पयसः पानम् । किन्तु अक तथा अ- इन दो स्त्रीवाचक कृत्-प्रत्ययों के योग में कर्म में ही षष्ठी होने का उक्त नियम नहीं है, कर्ता में भी साथ-साथ षष्ठी होती है - भेदिका ( भिन्न करना, धात्वर्थे ण्वुल् ) बिभित्सा ( भिन्न करने की इच्छा ) वा रुद्रस्य ( कर्ता ) जगत: ( कर्म ) - रुद्र के द्वारा जगत् का भेदन या जगत् को नष्ट करने की रुद्र की इच्छा । अन्य स्त्री-वाचक कृत्प्रत्ययों के योग में कर्ता को भी वैकल्पिक षष्ठी होती है - 'विचित्रा सूत्रस्य कृतिः पाणिनेः ' ( पाणिनिना वा ) । कुछ लोग यह विकल्प सर्वत्र मानते हैं'शब्दानामनुशासनमाचार्येण ( आचार्यस्य वा )'।
कतिपय कृत्प्रत्ययों के योग में कर्ता और कर्म में षष्ठी बिलकुल नहीं होती । ये कृत् हैं--लकारार्थक ( शतृ, शानच् आदि ), उ, उक, अव्यय ( क्त्वा, तुमुन् आदि ), निष्ठा ( क्त, क्तवतु ), खल- प्रत्यय के अर्थवाले तथा तृन् ( २।३।६९ ) । इसी प्रकार भविष्यत्काल के अर्थ में अक-प्रत्यय ( ण्वुल् ) तथा भविष्यत् एवम् आधमर्ण्य के अर्थ में इन्-प्रत्यय के प्रयोग में भी उपर्युक्त कारकों में षष्ठी नहीं होती, अन्य अर्थों में होती है - 'लोकस्य रक्षक : ' ( सदा रक्षा करनेवाला ) । ' अवश्यं कारी कटस्य' ।
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मति, बुद्धि तथा पूजा के अर्थ में ( पा० ३।२।१८८ ) जो वर्तमानकालिक क्तप्रत्यय का विधान हुआ है, उसके प्रयोग में उपर्युक्त नियम से षष्ठी विभक्ति का निषेध नहीं होता । निष्ठा प्रत्यय क्त का प्रयोग होने पर भी कर्ता में षष्ठी होती है - 'राज्ञं मत:, इष्ट:, बुद्धः, ज्ञातः पूजितः' इत्यादि । इनका कर्तृरूप होगा - राजानो मन्यन्ते इत्यादि । इसी प्रकार अधिकरण के अर्थ में होनेवाले क्त प्रत्यय के प्रयोग में कर्ता में षष्ठी होती है -- इदमेषां शयितं गतं भुक्तम् । भाववाचक क्त प्रत्यय के प्रयोग में भी कर्ता को षष्ठी होती है— 'गतं तिरश्चीनमनूरुसारथेः' (शिशु० १।२), 'न तु ग्रीष्मस्यैवं सुभगमपराद्धं युवतिषु' ( अभिज्ञानशा० ३।६ ) ( पा० सू० २।३।६७-६८ ) ।
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कृत्य-प्रत्ययों के योग में कर्ता में नित्य षष्ठी नहीं होती, वैकल्पिक तृतीया भी होती है (अनभिहित कर्ता में ) - मम ( मया ) सेव्यो हरिः ।
(ठ) तृप्ति के अर्थवाले धातुओं के करण में वैकल्पिक षष्ठी होती है; जैसे— 'अपां हि तृप्ताय न वारिधारा स्वदते' ( नैषध ३ । ९३ ), 'नाग्निस्तृप्यति काष्ठानाम् । फलानां ( फलेर्वा ) तृप्तः ' ।
इस प्रकार कारकविभक्तियों की लम्बी सूची दी जा सकती है ।
उपपदविभक्ति - ( क ) कर्मादि से भिन्न तथा प्रातिपदिकार्थ से भी पृथक्
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