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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
आधुनिक साहित्यिक शौरसेनी ( 100 से 200 ई०) भास, कालिदास, शूद्रक और दूसरे संस्कृत कवियों के नाटकों में भी पायी जाती है । भरत ( ईसवी सन तीसरी शताब्दी) ने अपने नाट्य शास्त्र में शौरसेनी का उल्लेख किया है जबकि महाराष्ट्री का नाम यहाँ नहीं है । नाट्य शास्त्र (17,46 ) के अनुसार नाटकों की बोल-चाल की भाषा शौरसेनी होनी चाहिए, हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत के बाद शौरसेनी का ही उल्लेख किया है उसके बाद मागधी और पैशाची का; साहित्य दर्पण (6, 159 165 ) में सुशिक्षित स्त्रियों के अलावा बालक, नपुंसक, नीच ग्रहों का विचार करने वाले ज्योतिषी, विक्षिप्त और रोगियों को नाटकों में शैरसेनी बोलने का विधान है; मार्कण्डेय ने प्राकृत सर्वस्व में (10, 1) शौरसेनी से प्राच्या का उद्भव बताया है; (प्राच्या सिद्धिः शौरसेन्याः) लक्ष्मीधर ने षड्भाषा चन्द्रिका (श्लोक 34) में कहा है कि यह भाषा छद्मभेषधारी साधुओं, कुछ लोगों के अनुसार जैनों तथा अधम और मध्यम लोगों के द्वारा बोली जाती थी; वररुचि ने शौरसेनी का आधार संस्कृत को माना है (प्राकृत प्रकाश 12/2) उसने शौरसेनी के कुछ नियमों का विवेचन कर शेष नियमों को महाराष्ट्री के समान समझने को कहा है ( 12/32)।
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वस्तुतः शौरसेनी शूरसेन - ब्रजमंडल मथुरा के आस-पास के प्रदेश की भाषा थी । राजनीतिक परिस्थितियों के कारण यह साहित्यिक हो गयी। इसका प्रचार मध्यदेश (गंगा यमुना की उपत्यका) में हुआ था। यह भूभाग पुरातन काल में सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र रहा है। डा० सुनीति कुमार चाटुर्ज्या 27 का कथन है कि भारतीय प्रादेशिक बोलियों तथा उनसे विकसित साहित्यिक भाषा के इतिहास का अवलोकन करने पर हमें पता चलता है कि विशेषतः मध्यदेश, उदीच्य तथा पश्चिम की बोलियों को ही प्रमुख महत्व का स्थान मिलता रहा । मथुरा में मुख्य केन्द्र वाली शौरसेनी प्राकृत सबसे अधिक सौष्ठव एवं लालित्यपूर्ण प्राकृत या पश्च मध्ययुगीन भारतीय आर्य भाषा सिद्ध हुई, यह भाग पहले से ही प्रमुख रहा है । राजनीतिक परिस्थितियों ने इसे महत्वपूर्ण स्थान दिया । कभी