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ग्राम्य अपभ्रंश इन रूपों में विभक्त हो गयी है। हेमचन्द्र ने इन दोनों अपभ्रंशों का उल्लेख किया है किन्तु उन्होंने जिस अपभ्रंश का व्याकरण लिखा है वह परिष्कृत अपभ्रंश है जिसका समय 1100 ई० से 1200 ई० तक माना जा सकता है। हेमचन्द्र की अपभ्रंश, शौरसेनी अपभ्रंश है। आधुनिक हिन्दी की तरह यह अपने समय में सर्वत्र मान्य थी। अपभ्रंश ही एक ऐसी विभाजक रेखा है जो भाषा की दृष्टि से पुरानी एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं की कड़ी जोड़ती है इसी से न० भा० आ० के शब्दों के विकास का पता चलता है। वस्तुतः हिन्दी भाषा के रचना विधान का तो सम्पूर्ण ढाँचा अपभ्रंश से समानता रखता हुआ प्रतीत होता है। यद्यपि अपभ्रंश के शब्दों की ध्वनि प्राकृत से बहुत कुछ समानता रखती है किन्तु उसका झुकाव आधुनिक भारतीय भाषाओं की ओर अधिक है। अपभ्रंश का परवर्ती रूप अवहट्ट और पुरानी हिन्दी के समान है अतः अपभ्रंश एवं हिन्दी ध्वनियों में काफी समानता है।
प्रकाशित अपभ्रंश-साहित्य के पुस्तकों में डॉ० हरमन याकोबी ने 1918 ई० में भविसयत्त कहा तत्पश्चात् सनत्कुमार चरिउ को विद्वतापूर्ण भूमिका के साथ संपादित किया जिसमें अपभ्रंश का सामान्य परिचय प्राप्त होता है। तदनन्तर स्व० डा० पी० डी० गुणे द्वारा संपादित भविसयत्त कहा विचार गर्भित प्रस्तावना के साथ बड़ौदा से प्रकाशित हुआ। मुनि जिन विजय जी तथा पं० नाथूराम प्रेमी ने जैन साहित्य के भण्डारों से अपभ्रंश साहित्य का अन्वेषण कर विभिन्न लेख लिखे। इन्हीं की प्रेरणा से श्री आदिनाथ उपाध्याय, डॉ० हीरालाल जैन, डा० पी० एल० वैद्य, डा० हरिवल्लभ भयाणी आदि विद्वानों ने अपभ्रंश पर विभिन्न प्रकार के शोधात्मक कार्य किये जिसके परिणाम स्वरूप परमप्पयासु, योगसार, णामकुमार चरिउ, करकंडु चरिउ, पाहुड़ दोहा, जसहर चरिउ, महापुराण, पउमचरिउ, पउमसिरिचरिउ, सन्देशरासक जैसी अनेक पुस्तकों का महत्त्वपूर्ण भूमिका के साथ सम्पादन किया गया। इसी क्रम में स्वर्गीय डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी का गवेषणात्मक लेख 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' में छपा जो बाद में सन्देशरासक की भूमिका के रूप में भी प्रकाशित हुआ। कालान्तर में प्राच्य क्षेत्र के बौद्धगान व दोहा एवं कीर्तिलता पर डा० हरप्रसाद शास्त्री ने अत्यन्त उपयोगी कार्य किये, इसी सन्दर्भ में पं० राहुल सांकृत्यायन