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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
इस भाषा का बोली भेद बहुत कम मिलता है। इसका साहित्यिक रूप ही अधिक पाया जाता है। अधिकांश पूर्व से पश्चिम तक का साहित्य एक ही शैली में लिखा हुआ प्राप्त होता है ।
प्राकृत का उत्तरकालीन विकास
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यह हम अभी देख चुके हैं कि बुद्ध और महावीर के समय में ही प्राकृत की सत्ता स्थापित हो चुकी थी। इसका विकास इस समय तक समग्र भारतीय आर्य भाषा के लिए हो चुका था । अश्वघोष के समय तक ये प्राकृतें साहित्यिक रूप प्राप्त कर चुकी थीं। अन्यान्य नाटकों में तरह-तरह के पात्रों के लिए विभिन्न प्राकृतों का प्रयोग होने लगा था। इससे विदित होता है कि साहित्य में प्रयुक्त होने के कारण प्राकृत का स्वरूप स्थिर होने लगा था। फिर भी प्राकृत भाषाओं का विकास जारी था। देश और काल के भेद की दृष्टि से प्राकृत के इतिहास का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। किन्तु शनैः शनैः प्राकृत के विकास के साथ-साथ शिष्ट प्राकृत भी पैदा हो चली। शिष्ट प्राकृत ने अन्य प्राकृत की बोलियों की विशेषताओं को भी अपनाना आरम्भ किया। यह भाषा का सर्वमान्य नियम है कि जब कोई बोली शिष्ट भाषा का रूप धारण कर लेती है तो वह अन्य बोलियों की विशिष्टताओं को अपनाकर आगे बढ़ती है । इस दृष्टि से एक ही प्राकृत विविध रूपों में प्रगट होती है। प्रथम शौरसेनी प्राकृत रूप में और दूसरी महाराष्ट्री प्राकृत रूप में प्राकृत विशेषज्ञों का कहना है कि वस्तुतः ये दोनों प्राकृतें नाम के अनुसार किसी विशिष्ट प्रदेश की भाषायें न होकर प्राकृत की दो विभिन्न शैलियाँ हैं । शौरसेनी में स्वरान्तर्गत असंयुक्त व्यंजनों का घोष भाव होता है, और वह घोष व्यंजन होकर महाराष्ट्री में सम्पूर्णतया नष्ट होता है - त का द होकर अ । शौरसेनी और महाराष्ट्री में स्वरान्तर्गत असंयुक्त व्यंजन का सर्वथा लोप होता है। ऐसी परिस्थिति में प्राचीन भाषा के अनेक शब्द