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. हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
में ओ और मान० में ए प्रत्यय होता है; निय प्राकृत में भी ए प्रत्यय अधिक प्रचलित है। प्राकृत धम्मपद में ओ और उ दोनों मिलते हैं, उ अधिक अर्वाचीनता के प्रभाव का सूचक है।
गिरनार के लेख की भाषा पश्चिमोत्तर और पूर्व से कुछ भिन्न है। इस लेख की भाषायिक विशेषताएँ इसे पालि के सन्निकट ले जाती हैं। यद्यपि पश्चिमोत्तर का कुछ प्रभाव इस पर परिलक्षित होता है; यह वस्तुतः गुजरात और सौराष्ट्र की भाषा स्थिति के बहुत कुछ अनुकूल है। जैसा कि पहले लिख चुके हैं कि पालि मध्यदेश की साहित्यिक भाषा थी और उसका प्राचीन शौरसेनी से सम्बन्ध है। किन्तु मध्यदेश के जो शिलालेख हैं वे वस्तुतः पूर्वी बोली के अधिक सन्निकट हैं।
ऋ का सामान्यतः अ होता है और ओष्ठ्य वर्ण के सान्निध्य में उ-मग (मृगः), मत (मृतः), दढ (दृढ़ः), कतञता (कृतज्ञता), वुत्त (वृत्त)। मध्यदेश में सामान्यतः ऋ का इ होता है, श, ष, स का भेद मिट गया। एकमात्र स ही प्रचलित रहा। पश्चिमोत्तर लेख के अनुसार क्ष का छ होता है और मध्यदेश में उसका ख मिलता
__ अशोक के शिलालेखों में मध्यदेश की भाषा के व्यवस्थित रूप नहीं पाए जाते; किन्तु उत्तर कालीन साहित्य को देखने से यह विदित होता है कि अश्वघोष के नाटकों की नायिका एवं विदूषक की भाषा प्राचीन शौरसेनी ही है। इसकी तुलना अशोक के गिरनार के लेख से हो सकती है। मध्यदेश के कुछ लक्षण सर्वमान्य हैं जैसे अस् का ओ और श, ष, स का स होता है। अश्वघोष की शौरसेनी में ज्ञ का ञ होता है, उत्तर कालीन वैयाकरणों ने ण्ण विधान किया है; गिरनार में भी ञ मिलता है-कृतञता। मध्यदेश की सामान्य प्रक्रिया ऋ-इ अश्वघोष में मिलती है, गिरनार में नहीं। संयुक्त व्यंजनों में व्य-व्व होता है गिरनार में नहीं। ष्ट, ष्ठ का ट्ट होता है। गिरनार में स्ट ही रह जाता है। इस