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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
भिक्षुओं का अपना हिस्सा अवश्य होगा। उसके फलस्वरूप इसकी भाषा में परिवर्तन भी हुआ होगा। उसके मूल उपदेश मगध के भिक्षुओं की भाषा एवं कोशल के राजकुमार की भाषा में यानि शिष्ट मागधी में थे। स्वभावतः उस उपदेश में शिष्ट भाषा का ही प्रयोग हुआ होगा-बोली का नहीं। दूसरे प्रांत का व्यक्ति दूसरे प्रांत की शिष्ट बोली ही बोल सकता है वहां की ग्रामीण बोली नहीं। दूसरे वाचन के 'संहनन' के समय में भी पश्चिम से बौद्ध भिक्षु गण आए थे। उनके उपदेश का प्रभाव शिष्ट मागधी पर अवश्य पड़ा होगा। अशोक के समय में ही यह साहित्य कुछ अंश में लिपिबद्ध हो चुका था। पालि के विषय में प्रायः यह प्रश्न उठता है कि यह किस प्रदेश की भाषा थी ? विद्वानों ने इसे (Kuuest speache) 'संस्कृत की भाषा' या 'मिश्र भाषा' भी कहा है। पं० बेचरदास' का भी कहना है कि-संस्कृति की भाषा के मूल में भी हमेशा किसी न किसी प्रदेश की बोली होती है, इसलिए पालि के तल में किस बोली का प्रभाव है, इसका विवाद किया जाता है। वस्तुतः प्राचीनतम बौद्ध साहित्य भी, बुद्ध निर्वाण के बाद करीब चार सौ साल के बाद ही लिपिबद्ध होता है, और वह भी अनेक तरह के भिक्षुओं की बोलियों के प्रभाव के बाद । निदान यह कि पालि में पूर्व और पश्चिम की भाषाओं का सम्मिश्रण है। इस पर धार्मिक शैली का प्रभाव अधिक है।
पालि शब्द के अर्थ के विषय में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। किन्तु इसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘पंक्ति, घेरा, सीमा' और उसके बाद अर्थ होता है 'पवित्र पाठ'। यह उस भाषा के लिए प्रसिद्ध है जिसमें कि तिपिटक या भिक्खुओं की पवित्र भाषा जो कि सिलोन, वर्मा और श्याम में लिखी गई है। बौद्धों की यह शाखा 'हीनयान' के नाम से प्रसिद्ध है और यह उत्तर बौद्धों की शाखा से भिन्न है। इसे हम 'महायान' नाम से अभिहित करते हैं। इन भिक्षुओं की भाषा में हम विस्तृत साहित्य पाते हैं। सामान्यतया उसे हम 'अत्थ कथा' कह कर पुकारते हैं और उसमें बहुत सी कविताएं भी प्राप्त होती हैं।