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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
सुणइ, मुच्छ माणे, मुच्छइ रूप पाये जाते हैं (आयार० 1,15,2 और 3)। अपभ्रंश में प्रायः अन्त, अन्ती वाले रूप ही मिलते हैं । यत्र तत्र माण का प्रयोग भी अपभ्रंश में मिल जाया करता है - पविस्समाण, वट्ठमाण, आसीण आदि ।
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संदेश रासक ( 864 भूमिका भयाणी) में अन्त ( स्वार्थे 'अन्तय रूप ) स्त्री० अन्ती रूप तथा उक्ति व्यक्ति प्रकरण (881 - भूमिका - डा० सु० चटर्जी) में अंत तथा 'अत दोनों प्रकार के उदाहरण मिलते हैं । प्रा० पैंगलम् में भी अंत और अंती रूप मिलते हैं। उदाहरण:- मोह वसिण बोलंत (सं० रा० 950), सुह तइय राओ उग्गिलंतो सिणे हो (सं० रा० - 100 ब०); करत, पढ़त, पयंत < पचन्त या पचता ( उ० व्य० प्र० 20 / 11 ) बोलत, जेवंत ( उ० व्य० प्र० - 39 / 13 ); उल्हसंत, बलंत ( प्रा० पैं० 1, 7) भाव कर्म या यों ही प्रेरणार्थक णिच् प्रत्यय वाली धातुओं से अन्त या माण के पूर्व ज्ज का विधान होता है - फुक्किज्जन्त भमन्त (हेम० 4/422,3)।
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पुरानी राजस्थानी में अंत, अंती वाले रूप मिलते हैं, साथ ही साथ अत और अती वाले रूप भी पाये जाते हैं। खड़ी बोली, ब्रज आदि में यही अत वाले रूप प्रचलित हैं ।
कर्मवाच्य - भूतकालिक कृदन्त
अपभ्रंश के भूतकालिक कर्मवाच्य कृदन्त में निम्नलिखित प्रत्यय उपलब्ध होते हैं - इअ - इउ, - इय, - इयउ, इअअ - इअउ । इन सभी की व्युत्पत्ति प्रा० भा० आ०-इ-त से हुई है। पालि और प्राकृत से विकसित होते हुए ये प्रत्यय अपभ्रंश में आये हैं। न० भा० आ० भाषाओं में भी ये पाये जाते हैं। यह - इत 'क' के साथ या उसके विना भी प्रयुक्त होता है ।