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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
रूप में हुआ है। वे धातु रूप ही लकारों यानी कालों के अर्थों का द्योतन करते थे। किसी पूरक या सहायक क्रिया की कोई आवश्यकता नहीं होती थी। किन्तु जब से क्रियायें भी विशेषण की ओर जाने लगी तब से सहायक की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। हिन्दी में सहायक क्रिया के विना अर्थ प्रकाशन में अभाव का कारण है-कृदन्तज रूपों का बाहुल्य । अपभ्रंश के युग में ही कृदन्तों की प्रधानता हो चली थी, किन्तु उस समय लकारों के धातु रूपों से वर्तमान, भविष्य एवं विधि आदि के अर्थों का द्योतन होता था। अतः उस समय उन सहायक क्रियाओं की आवश्यकता नहीं दीख पड़ती थी। आधुनिक हिन्दी में कृदन्तज रूपों की ही प्रधानता होने से भूतकाल के अतिरिक्त अन्य कालों के अर्थ प्रकाशन में भी असुविधा होने के कारण सहायक क्रियायें चल पड़ीं।
संस्कृत में भी एककालिक अर्थ द्योतन के लिये 'अस्' धातु का प्रयोग होता था। वर्तमान और भूत यानी 'है' और 'था' के लिये अस्ति और आसीत् का प्रयोग होता था। भविष्य के लिये इस धातु का विकारी रूप 'भविष्यति' रूप प्रयुक्त होता था। पालि के बाद प्राकृत से ही इस धातु का महत्व बढ़ चला। इसका अर्थ एक अंश का ही प्रकाश करता था। अपभ्रंश में भी यही स्थिति रही। किन्तु जब से हिन्दी में दोहरी क्रिया का प्रयोग होने लगा तब से इस धातु का वैशिष्ट्य बढ़ा। अपभ्रंश दोहा में अस् धातु का रूप दो बार प्रयुक्त हुआ है। जं अच्छइ तं माणिअइ होसइ करतु मअच्छ। (हेम० 4/388) यदि दूसरे अच्छि का अर्थ आस्व-आस् (उपवेशने) बैठना (अदादिगण) धातु मानते हैं तब तो केवल पूर्व का अच्छइ ही अवशेष रह जाता है। अतः वर्तमान काल में रूप होगा-अन्य पुरुष ए० व० अच्छइ पक्ष में अस्थि, ब० व० में अच्छहिं, अस्थि । मध्यम पु० ए० व० अच्छहि, अच्छसि, अत्थि; ब० व० अच्छह । उत्तम पु० ए० व०-अच्छउँ, अच्छम्हि, अम्हि । ब० व० में अच्छहूँ, अच्छमो, अच्छम्हो, अच्छम्ह आदि ।