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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
ii. मध्यम पुरुष के रूपों का उदाहरण हेमचन्द्र के अपभ्रंश दोहों में नहीं है। 'एसी' < एसिइ; गमिही < गमिहिइ, इनमें इ+इ=ई संधि हुई है।
हेमचन्द्र ने ‘कीसु' रूप को कर्मणि वर्तमान के रूप में गणना की है (प्रा० व्या० 4/389), किन्तु कर्मणि अंग 'कि' है (किज्जउँ.) + भविष्य का रूप साधक 'ईस' + उत्तम पु० ए० व० का प्रत्यय 'उ' है। इससे दोनों का भेद स्पष्ट रूप से हो जाता है।
हेमचन्द्र के अनुसार 'सहेसइ' (प्रा० व्या० 422, 23) अन्य पुरुष का रूप है। किन्तु जिस उदाहरण में यह प्रयोग आता है उसका अर्थ लगाने पर यह मध्यम पुरुष का रूप ठहरता है। ऐसा नहीं करते हैं तो 'होसइँ' (हेमo 4/418,4) में 'हि' प्रत्यय का हकार लुप्त स्वर 'ई' है, उसी में का म० पु० ए० व० 'हि' प्रत्यय का हकार लुप्त 'इ' स्वरूप है। इसकी गणना होती है।
2. आज्ञार्थ भविष्यमध्यम पु० ए० व० हि (रूपसाधक प्रत्यय 'ज्ज') दिज्जहि । .. . ब० व० हु (रूपसाधक प्रत्यय 'एज्ज') रक्खेज्जहु
इसके बाद 'अ' प्रत्ययों का प्राकृत रूप पुरुष, वचन का निरपेक्ष रीति का उदाहरण (इज्ज प्रत्यय) चइज्ज, भमिज्ज, (म० पु० ए० व०), अ का (ज्ज प्रत्यय) होज्ज (अन्य पु० ए० व०) इन का रूप है-'लज्जेज्जं (उ० पु० ए० व०) इसका संस्कृत रूप-लज्जेयं (विध्यर्थ उ० पु० ए० व०) का ज रूपान्तर है।
दिज्जहि (का देज्जहि), 'रक्खेज्जहु' (रक्खिज्जहु) का अर्वाचीन रूप दीजे या हि०-दीजिये, राखजो-हि० रखिये।
वस्तुतः म०. भा० आ० में भविष्यत् के दो प्रकार के रूप मिलते थे :- (1) स्स रूप, (2) ह रूप। स्स का विकास प्रा० भा० आ० 'स्य' से हुआ है। 'स्य' के य का इ सम्प्रसारण होकर स का ह होना स्वाभाविक है। इस तरह हि (ह) की व्युत्पत्ति की