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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
वस्तुतः आर्य भाषा दो प्रकार से फैल रही थी। प्रथम बोल-चाल की बोलियों की सीमाएं फैल रही थीं और संस्कृत धार्मिक और बौद्धिक जीवन की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो रही थी। यद्यपि बौद्धों और जैनियों ने प्रादेशिक भाषाओं को अधिक महत्व दिया था, उसी में अपनी रचनाएं और धार्मिक प्रचार कर रहे थे। फलतः प्रादेशिक भाषाएं संस्कृत से दूर होती जा रही थीं। इतना होने पर भी संस्कृत की महत्ता कम नहीं हुई। इसका विकास दिनानुदिन बढ़ता ही गया। वैदिक भाषा के साहित्य सुसमृद्ध हो जाने पर उसने परिनिष्ठित रूप धारण कर लिया। धीमे-धीमे उसके रूपों में जब बाहुल्य आने लगा तब स्वभावतः वह भाषा जनता से दूर हो चली। ऐसी परिस्थिति में पुनः उदीच्य और धीमे-धीमे मध्य देश की भाषा ने विकास कर संस्कृत का रूप धारण किया। इस संस्कृत शब्द का नामकरण प्रचलित भाषा या सामान्य भाषा के अर्थ में पवित्र वेद की भाषा से भिन्नता बताने के लिए किया गया। यह वैदिक भाषा से अभिन्न होते हुए भी वस्तुतः भिन्न थी। इस भिन्नता का पता यास्क के निरुक्त से तथा पाणिनि की अष्टाध्यायी से चलता है। पहले साहित्यिक वेद की भाषा तथा जनता की भाषा में भेद था। पहले के लिए छन्द या निगम शब्द और दूसरे के लिए भाषा या लौकिक शब्द प्रयुक्त होता (निरुक्त-1/4 और 2/2; अष्टाध्यायी-3/1/108) था । पतञ्जलि ने अपने 'शब्दानुशासन' के आरम्भ में ही इसका भेद स्पष्ट कर दिया है। दोनों प्रकार की भाषाओं के विषय में उसने व्याख्या दी है। उसने केवल संस्कृत के लिए लौकिक शब्द का ही प्रयोग नहीं किया है अपितु उसने वैदिक भाषा के विषय में भी व्याख्या की है। पतञ्जलि का कहना है कि वैदिक भाषा का ज्ञान वेद के अध्ययन से ही हो सकता है। प्रचलित शब्दों का ज्ञान तो भाषा के प्रयोग से होता है।
किन्तु प्रश्न उठता है कि यह जनता की भाषा किस प्रकार संस्कृत विशिष्ट नाम में परिणत हो गयी। इसका ज्ञान हमें संस्कृत भाषा के इतिहास से न होकर संस्कृत व्याकरण से प्राप्त होता है। 'संस्कृत' अर्थात् वह भाषा जिसका संस्कार किया गया हो।