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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
4/385) किज्जउँ < क्रिये यहाँ इसका अर्थ करिष्यामि है (हे० 4/385/445,3), जाणउँ < जाणामि (हे० 4/391,439,4); जोइज्जउँ < विलोक्ये, देक्खउँ < द्रक्ष्यामि, झिज्जउँ < क्षीये (4/356,357 4,425); पावउँ < प्राप्नोमि; < पकावउँ <* पक्वापयामि < पचामि, जीवउँ <* जीवामि, चजउँ (तजउँ) < त्यजामि (पिंगल-1,104, अ 2,64); पिआवउँ (पिआवउ) <* पिबापयामि < पाययामि है। अपभ्रंश के ध्वनि नियमों के अनुसार जाणउँ रूप केवल * जानकम से उत्पन्न हो सकता है (पिशेल $352), पिशेल महोदय का कहना है (8454) कि * जानकम् के साथ व्याकरणों द्वारा दिये गये उन रूपों की तुलना की जानी चाहिये जिनके भीतर अक आता है जैसे, पचतकि, जल्पतकि, स्वपितकि, पठतकि, अद्धकि और एहकि हैं। यह क परवर्ती वैदिक यामकि < यामि से व्युत्पन्न माना जाता है।
___ अउँ (अउ का ही वैकल्पिक अनुनासिक है) का विकास डॉ० चाटुा ने इस प्रकार माना है
प्रा० भा० आ० आमि < म० भा० आ० आमि-अमि > परवर्ती म० भा० आ० या अपभ्रंश * अवि >* अउइ > अउँ। 'करउँ' की व्युत्पत्ति का संकेत डॉ० चाटुा ने यों किया है :
प्रा० भा० आ० करोमि, * करामि > म० भा० आo-करमि, परवर्ती म० भा० आ० या अपभ्रंश * करविं अन्तिम इ की समाप्ति के साथ या किसी समान स्वर से घुलमिलकर *> करवि >* करउइँ > करउँ। मि वाला रूप प्राकृतीकरण है। उँ, उ वाले रूप अपभ्रंश के निजी रूप हैं। संदेशरासक में भी उँ, उ वाले रूपों का ही बाहुल्य है। उक्ति व्यक्ति प्रकरण तथा प्राकृत पैंगलम् में भी यही स्थिति है। निष्कर्ष यह कि 12वीं शताब्दी तक मि वाले रूप का अस्तित्व समाप्तप्राय सा हो चला। यत्र तत्र मि वाले रूप जो पाये जाते हैं वह वस्तुतः प्राकृत का साहित्य पर प्रभाव पड़ने के कारण था।