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रूप विचार
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पुरानी हिन्दी में लिखा है कि पालि से लेकर अपभ्रंश तक तथा आधुनिक भारतीय आर्य भाषा हिन्दी आदि में द्विवचन का जो अभाव पाया जाता है उसका कारण यह है कि वैदिक जन भाषा में ही द्विवचन का अभाव था। परिनिष्ठित संस्कृत के रूढ़बद्ध हो जाने के कारण उसका स्वाभाविक विकास रुक गया और उसके स्थान पर वैदिक जनभाषा से विकसित जनभाषाएँ चल पड़ीं। स्वभावतः उन जनभाषाओं में भी द्विवचन का अभाव हो गया । किन्हीं दो वस्तुओं का बोध कराने वाले संख्या वाचक दो का प्रयोग करके अनेक वाचक बहुवचन से काम चलाया गया । पिशेल का कहना है कि द्विवचन के रूप प्राकृत में केवल संख्या शब्दों में रह गये हैं, दो < द्वौ, औ दुवे तथा वे < द्वे और कहीं-कहीं ये रूप नहीं भी मिलते। पूरे के पूरे लोप हो गये हैं। संज्ञा और क्रिया में इनके स्थान पर बहुवचन आ गया है जो स्वयं संख्या- शब्द दो के लिये भी काम में लाया जाता है- जैसे हत्था थरथरन्ति < हस्तौ थरथरयेते । कण्णे I < कर्णयोः आदि ।
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शब्द रूप
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा में शब्दों के दो विभाग होते थे: - (1) अजन्त (2) हलन्त । 'अजन्त' शब्दों में ह्रस्व तथा दीर्घ-अ, इ, उ तथा ऋकारान्त शब्द हैं। 'हलन्त' शब्द अन्तिम प्रकृत अथवा प्रत्ययान्त व्यंजन के अनुसार अनेक प्रकार के हैं :- जैसे च्, क्, थ्, द्, ध्, स्, म्, श् आदि अन्त में होने वाले तथा वत्, तात्, उत्, वत्, त्, अन्त्, मन्त् वन्त्, अन्, एन्, मिन्, विन्, अर्, तर् आदि प्रत्ययान्त शब्द थे । इन शब्दों के साथ संस्कृत की आठों विभक्तियाँ जुटती थीं और शब्द रचना होती थी । प्राकृत में हलन्त शब्द समाप्तप्राय हो गये । अजन्त शब्दों का बाहुल्य हो गया। परिनिष्ठित संस्कृत की भाँति प्राकृत में शब्द रूपों की वह जटिलता नहीं रह गयी थी । शब्द रूपों में एक वचन और बहुवचन का ही प्रयोग होता था । चतुर्थी विभक्ति का रूप समाप्त हो गया था । संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत के शब्द रूपों में एकरूपता तथा सरलता दृष्टिगोचर होती है। संस्कृत में जहाँ पर एक विभक्ति के लिये एक ही