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अष्टम अध्याय
रूप विचार
अपभ्रंश जिस कारण अपना पृथक् अस्तित्व रखती है, प्राकृत तथा आधुनिक भाषा से उसकी भिन्नता परिलक्षित होती है-वह है उसकी रूप रचना का विधान। रूप रचनात्मक विकास का महत्व ध्वन्यात्मक विकास से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है, किन्तु इस रूप परिवर्तन का मूल कारण ध्वनि परिवर्तन ही होता है। जैसा कि डॉ० बेचरदास पण्डित' ने कहा है-"जब ध्वनि व्यवस्था पलटती है, तब अपने आप व्याकरण व्यवस्था भी पलटती है। जब कोई एक वर्ण पलटता है, तब जहाँ जहाँ वह वर्ण आयेगा वहाँ सब जगह पलटा होगा,
और यह परिवर्तन सारे व्याकरण तन्त्र को भी पलटा देगा। इस दृष्टि से यदि हम प्राकृतों के व्याकरणी तन्त्र पर दृष्टिपात करेंगे तो मालूम होगा कि उसके परिवर्तित व्याकरणी तन्त्र का सारा आधार उसके परिवर्तित ध्वनि तंत्र पर ही है। प्राकृत में अन्त्य व्यंजन के लोप से, व्यंजनान्त शब्द नहीं होते, अपभ्रंश में भी व्यंजनान्त नहीं पाया जाता है। इस परिवर्तन से शब्द रूपों में भी परिवर्तन आ गया। संस्कृत के शब्द रूपों की विभिन्नता की जगह प्राकृत तथा अपभ्रंश में मुख्यतया अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त वाले शब्द रूपों का प्रचलन हुआ। अन्त्य स्वर के हस्व दीर्घत्व के परिवर्तन होने से (Length of the final Vowels) अपभ्रंश के शब्द रूपों में हस्व दीर्घ का भेद नष्ट हो गया।
___ध्वनि परिवर्तन के कारण ऐ का ए और औ का ओ वर्गों पर आधारित जितनी भी व्याकरणी प्रक्रियायें थीं उन सब पर प्रभाव पड़ा, और महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। यही कारण है कि मध्य भारतीय आर्य भाषाओं में द्विवचन का अभाव हो गया। क्योंकि औ का ओ हो जाने