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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
सम्प्रसारण
सम्प्रसारण जिसे आधुनिक भाषा वैज्ञानिक अर्धस्वर कहते हैं उसी को प्राचीन वैयाकरण सम्प्रसारण कह कर पुकारा करते थे यानी य तथा व का सम्प्रसारण कर कभी-कभी तद्भव तथा तत्सम शब्दों में क्रम से इ तथा उ हो जाया करता था। तत्सम-अभिअन्तर < अभ्यन्तर । अपभ्रंश के तद्भव शब्दों में यह प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। हे० 8/4/395 सरिसिम < सादृश्यम् 8/4/402 सई < स्वयम्, 8/4/418 लोणु < लवणं, सुविण < स्वप्न, सुअहि < सोअहि < स्वपिहि. तिरिच्छ < तिर्यक्ष *, णाउ < णाव < नामन, अउर < अवर < . अपर, (हिन्दी और) विउस < विदुस * < विद्वष, देउल < देवल |
संस्कृत यज् धातु से इष्टि बना, शौरसेनी में इसका रूप इट्ठि
वप् से उप्त बना, महाराष्ट्री में इसका रूप उत्त है।
स्वप > सुप्त > सुत्त, आचार्य > आयरिय > आइरिय, राजन्य > रायण्ण > राइण्ण, गवय > गउअ > गउआ, यावत > जाउँ, तावत > ताउँ, त्वरित > महा० अप० तुरिअ, जै० महा० तुरिय, शौ० तुरिद, मा० तुलिद, सुयइ, सुअइ > सुवयइ > * स्वपति > स्वपिति, णाउँ > * णावम > नाम, सोनार > सोण्णार > सुण्ण आर > स्वर्णकार पिशेल का कहना है कि सम्प्रसारण के नियम के अधीन अय का ए और अव का ओ में बदलना भी है। इस प्रकार दसवें गण की प्रेरणार्थक क्रियाओं और इसी प्रकार से बनी संज्ञाओं में अय का ए हो जाता है। कथयति के लिये महाराष्ट्री और अर्धमागधी में कहेइ और मागधी में कधेदि हो जाता है। कथयत् का शौरसेनी में कधेदु और अपभ्रंश में कधिद् होगा। त्रयोदश >* त्रयदश > अर्धमा० तेरस > अप० तेरह त्रयोविंशति >* त्रयविंशति > अर्धमा० जै० महा० तेवीसम > अप० तेइस, त्रयत्रिंशत > अ० मा०, जै० महा० तेत्तीसं, तित्तीसं > तेतिस; महाराष्ट्री, शौरसेनी और अपभ्रंश ऍत्तिय, इत्तिय की व्युत्पत्ति पिशेल' ने * अयत् या * अयत्तिय की स्वरभक्ति के साथ * अयत्त से निकला माना है। इससे