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ध्वनि- विचार
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शौरसेनी अपभ्रंश ने लोक बोली में महाराष्ट्री का अनुसरण किया है। कठोर शब्दों की जगह कोमलता की प्रवृत्ति आधुनिक आर्य भाषाओं में भी देखी जाती है ।
मध्य भारतीय आर्यभाषा में टवर्गीय अघोष ध्वनियों का नियत रूप से सघोषीभाव” (Voicing) मिलता है। वैसे अपभ्रंश में 'क, च, त, प,' तथा 'ख, छ, थ, फ' के भी सघोषी भाव के संकेत मिलते हैं। टवर्ग से इतर ध्वनियों में संघोषी भाव के सिर्फ छिटपुट उदाहरण मिलते हैं, तथा मअगल < मदकल, आणीदा < आनीता, अब्भुद < अद्भुत । प के व वाले रूप अनेक मिलते हैं, जो संभवतः प>>व के क्रम से विकसित हुए जान पड़ते हैं। सघोषी भाव के उदाहरण :- ट > ड कोडी < कोटि (कोटिका), गुडिआ < गुटिका, तड < तट, कवड < कपट, सुहड - सुभट, कडक्ख < कटाक्ष, पडिजंपइ < प्रतिजल्पति । ठ > (< थ) ठ-पठम < * पठम < प्रथम, मढ < मठ, वीठ <
<
पीठ ।
प > ब > व-सुरवइ - सुरपति, अवर < अपर, किवाण < कृपाण, कुविय, < कुपित, दीव < द्वीप, पाव < पाप, रुव < रूप, उवरि < उपरि, उवरण < उपकरण, उवज्झा < (ओझा) उपाध्याय, अवि < अपि, ताव < ताप |
ब> व- कवल < कबल, सवर < सबर ।
इसी तरह कई स्थानों पर 'त' का प्रतिवेष्टितीकरण (Retroflection) कर तब सघोषी भाव मिलता है: - पाडिओ < पाटिओ < पातितः, पडु < पडिअ < * पटिअ < पतितः I
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इसी प्रक्रिया से संबद्ध वह प्रक्रिया है, जहाँ त (ट) > ड > ल तथा डल वाले रूप भी मिलते हैं । म० भा० आ० में स्वर मध्यग 'ड' का उत्क्षिप्त प्रतिवेष्टित 'ड' हो गया था । वैभाषिक रूप में इसके 'र' तथा 'ल' विकास पाये जाते हैं । प्राकृत पैंगलम् 3 में कुछ स्थानों पर यह ल रूप मिलता है: - पअल < प्रकट, पलिअ पडिअ < पतितः, णिअलं < निकटं ।