________________
ध्वनि-विचार
245
स्पर्शीश का लोप कैसे हुआ, इस विषय पर विद्वानों ने कुछ कल्पनायें की हैं। डॉ० सुनीति कुमार चाटुा ने अपनी पुस्तक भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी के पृ० 113-19 में लिखा है कि मध्य भारतीय आर्यभाषा में व्यंजनों के परिवर्तन के कारण उच्चारण धीरे-धीरे ऊष्म होकर शिथिल हो गया। फलत:
(1) पदान्त के व्यंजनों का लोप हो गया।
(2) स्पर्श व्यंजनों के समूह में प्रथम का दूसरे के साथ समीकरण हो गया,
(3) प्रायः स्वर मध्यग स्पर्श-व्यंजनों का लोप हो गया। महाप्राण वर्गों में केवल 'ह' ध्वनि शेष रह गयी।
(4) मध्य भारतीय आर्य भाषा के आरम्भिक काल से ही पदान्त व्यंजनों का लोप तथा संयुक्त व्यंजनों के लोप में कुछ अपवाद मिलते रहे। डॉ० चाटुा का कहना है कि मूर्धन्य वर्गों का उपयोग वहीं मिलता है, जहाँ 'ष' 'न' अथवा 'र' के संयोग से दन्त्य वर्ण मूर्धन्य हो जाते हैं। शनैः शनैः संयुक्त व्यंजनों की वृद्धि के कारण को उन्होंने द्रविड़ भाषा का प्रभाव माना है।
(5) हेमचन्द्र के समय तक स्वर मध्यग स्पर्श व्यंजनों के लोप की प्रक्रिया चलती रही। फलतः उच्चारणगत असुविधा के कारण 'य' 'व' श्रुति को सन्निवेश कर उसे दूर किया गया।
मध्य भारतीय आर्य भाषा की प्रथम स्थिति में स्पर्श ध्वनियों तथा य, व, का विकास 'सोष्म व्यंजनों' (Spirauts) के रूप में हो गया था। अगली स्थिति में आकर ये सोष्म व्यंजन लुप्त हो गये तथा इनके स्थान पर 'उद्वृत्त स्वर' पाये जाने लगे उदाहरणार्थ-प्रा० भा० आ० द्यूत, द्विगुण, शुक, ताप, हृदय, दीप का विकास नव्य भारतीय आर्यभाषा में 'जूआ, दूना, सुआ, ता, (ताअ) हिआ, दिया' होने के पहले ये म० भा० आ० में 'जूद, दिगुण, सुग, ताब, हिदअ, दिबा,' की स्थिति से जरूर गुजरी होगी। इसी तरह इनके 'महाप्राण स्पर्शों' में भी यह विकास देखा जाता है-मुख > मुघ > मुह; लघु, > लघु; कथयति > कधेदि > कधेदि > कहेइ > कहे, वधू > वधू > वहू;