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ध्वनि- विचार
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(2) बहुत से आदि स्वर का लोप यों ही होता है। तो < अतः, वि < अपि, व < इंव, भीतर < अभ्यन्तर, अम्बरई - आडम्बराणि । (3) संधि के कारण भी आदि स्वर का लोप होता है । छन्द के कारणों से भी लोप होता है।
(ख) मध्य स्वर लोप (Syncope ) - मध्य स्वर लोप की प्रवृत्ति अपभ्रंश में नहीं पाई जाती है। कभी-कभी प्राकृत के अवशिष्ट रूपों में यह प्रवृत्ति परिलक्षित भी होती है - पोप्फल < सं० पूगफल, समुण्णोण < समुण्ण ओण्णअ, भविसत्त < भविस अत्त ।
(ग) अन्त्य स्वर लोप- अपभ्रंश के शब्द प्रायः तद्भव होते हैं । अतः उनमें अन्त्य स्वर लोप की प्रवृत्ति देखी जा सकती है - नींद < निद्रा, पिय < प्रिया, पेम < प्रेम, केम आदि । तृतीया एक वचन में भी यह प्रवृत्ति पायी जाती है । इन अपभ्रंश में एँ रहने पर अन्त अ का लोप हो जाता है - रामें < रामेण ।
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स्वरागम
(क) आदि स्वरागम (Prothesis of Vowels) - आदि स्वरागम के उदाहरण कम पाये जाते है । अंवरोप्परु < परस्पर, इत्थि < स्त्री - हे० 8/4/401 | किन्तु अपभ्रंश में ऐसी प्रवृत्ति कम पायी जाती है । हिन्दी की उच्चारण ध्वनियों में आदि स्वरागम की प्रवृत्ति बहुत पायी जाती है।
(ख) मध्य स्वरागम, स्वरभक्ति (Anaptyxis) - मध्य स्वरागम, स्वरभक्ति के उदाहरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। प्राचीन भारतीय आर्यभाषा में भी यह प्रवृत्ति पाई जाती है । मध्य भारतीय आर्यभाषा में इसकी प्रवृत्ति और भी बढ़ चली । प्राकृत वैयाकरण स्वर भक्ति को विप्रकर्ष कहकर पुकारा करते थे । य, र, ल, व, तथा अनुनासिक युक्त व्यंजन में इसका प्रयोग अधिक पाया जाता है-रअण जोइ < रत्न जोई < रत्नज्योति, मुरूक्ख, मुक्ख - मूर्ख, कारिम, कम्म < कर्मन, वरिस < वर्ष, कसण - कृष्ण, सुमिरिज्जइ < स्मर्यते, सुमरणु <
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स्मरण ।