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ध्वनि-विचार
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दोहे में कुछ उवृत्त स्वर तो ज्यों के त्यों बने रहे। उनमें किसी प्रकार का विकार नहीं हुआ; जैसे हेम० 8/4/342-विप्पिअ आरउ < विप्रिय कारकः, 8/4/343 लोअणहं < लोचनानां, निअय सर < निजक शरान्, 8/4/345 संगर सएहिं < संगरशतेषु, अइमत्तहं < अतिमत्तानां, उड्डावंतिअए < उङडापयन्त्या; 8/4/353 अलिउलई < अलिकुलानि, मउलिअहिं < मुकुलन्ति।
कुछ उवृत्त स्वर संकुचित होकर आसपास वाले स्वरों के साथ मिलकर विकारी स्वरों के रूप में परिणत हो गये यानी जैसे-संस्कृत में अ+इ मिलकर (गुण होकर) ए, अ+उ मिलकर ओ हो जाता था, अ + अ मिलकर (दीर्घ होकर) आ हो जाता था। इ + इ मिलकर ई होता था। संस्कृत में जिस प्रकार 'अ' के बाद 'ए' के रहने पर पररूपा4 हो जाता था उसी प्रकार की विकसित प्रवृत्ति अपभ्रंश में भी परिलक्षित होती है।
___ (1) गुण का उदाहरण :-एह < अईस < * आदृश, जेह < जइस < यादृश, तेह < तइस < तादृश, सुहेल्ली < सुह एल्ली < सुख केली, चोत्थी < चउथी < चतुर्थी, चोद्दह < चउद्दह < चतुर्दश हिन्दी चौदह, पोम < पउम <* पदुम < पद्म, उआर < उपकार, सोण्णार < सोण्णआर < स्वर्णकार इत्यादि ।
(2) दीर्घ का उदाहरण-दूण (हि० दूना) < द्विगुण, ऊखल < उदूखल, राउल < रा + अ-उल < राजकुल, भाण < भाजन, खाइ < खादति, खाण < खादन । प्राचीन संस्कृत का आय आ में परिणत हो जाता है-पलाण < पलायन, पादिहेर < प्रातिहारय, पियारी < पिय + आरी < प्रियकारी, अंधार < अंध + आर < अंधकार, साहारय < सहकारक, वीय < द्वितीय, तीय < तृतीय ।
(3) पररूप की प्रवृत्ति-सुहेल्ली < सुह + एल्ली < सुखकेली इत्यादि । अपभ्रंश में संस्कृत पारिभाषिक पररूप का विकास कई प्रकार से हुआ। फिर भी इस कार्य का कोई निश्चित नियम न रहा। उ+उ मिलकर भी 'उ' हो जाता था जैसे उम्बर < उदुम्बर । कभी-कभी उ के