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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
चतुर्विधं तच्च भाषा विभाषा पंचधा पृथक् ।
अपभ्रंशास्त्रयस्त्रिस्रः पैशाच्यश्चेति षोडशः।।
अपभ्रंश की व्याख्या करते हुए मार्कण्डेय ने किसी अज्ञात लेखक के अनुसार 27 अपभ्रंशों की सूचना दी है। स्वतः उसने तीन अपभ्रंश भाषायें स्वीकार की हैं:- नागर, उपनागर और ब्राचड। इससे अतिरिक्त अन्य अपभ्रंश भाषाओं का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं माना है। वे सभी इन्हीं के अन्तर्गत आ जाती हैं :
अपभ्रंशाः परे सूक्ष्मभेदत्वात् न पृथङ्मताः। उन्होंने अपभ्रंश के 27 भेद किये हैं, इनमें पाण्ड्य, कालिंग्य, कारणाट, कांच, द्राविड़ आदि को भी सम्मिलित कर लिया है। इस पर पिशेल महोदय का कहना है कि मार्कण्डेय ने अपभ्रंश के अन्तर्गत आर्य और अनार्य दोनों प्रकार की भाषाओं का वर्गीकरण किया है। डा० रामकुमार वर्मा का कहना है कि यद्यपि यह कठिनता से माना जा सकता है कि आर्य और अनार्य भाषाओं में सूक्ष्म भेद है ही और वे स्वतन्त्र भाषाओं की संज्ञा से विभूषित नहीं की जा सकतीं। जिस प्रकार प्राकृत में महाराष्ट्री प्राकृत मान्य है उसी प्रकार अपभ्रंशों में नागर अपभ्रंश का महत्वपूर्ण स्थान है। यह मुख्यतः गुजरात में बोली जाती थी। नागर का अर्थ यह भी है जो कि नागर देश में बोली जाती हो। गुजरात के पंडित नागर कहे जाते थे, अतएव नागर अपभ्रंश का स्थान गुजरात में था किन्तु नागर अपभ्रंश का आधार शौरसेनी प्राकृत था जो कि मध्य प्रदेश के होने के कारण संस्कृत के प्रभाव से वंचित नहीं हो सकती थी। वाचड सिंध में बोली जाती थी और उपनागर सिंध के बीच के प्रदेश में अर्थात् पश्चिम राजस्थान और दक्षिण पंजाब में बोली जाती थी।
इन अपभ्रंशों पर विचार करते समय प्राकृत साहित्य तथा नाटकों से उदाहरण लिये जाते हैं
(1) काव्यों में बृहत्कथा, सप्तशती, सेतुबन्ध और गउडवाहो से उद्धरण दिया गया है।