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प्राकृत वैयाकरण और अपभ्रंश व्याकरण
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(6) वर्तमानकाल तृतीय पु०, ए० व० और ब० व० में दि और हि होता है-4/382-धरहिं, करहिं, (परवर्ती रूप); 4/393-प्रस्सदि (शौरसेनी का द्योतक);
(7) आज्ञा वाचक म० पु० ए० व० के लिये इ, उ, और ए रूप होता है-4/387-सुमरि, करे; 4/330-करु; आदि ।
(8) भविष्यत्काल में ह के रहते हुए भी स को रखना-4/388-होसइ (शौरसेनी की विशेषता है)।
(9) कर्म वाच्य के लिये वैकल्पिक रूप-4/389-कीसु ।
(10) 4/406-जामहिं, तामहिं जैसे रूपों का निर्देश। इस प्रकार उसने शौरसेनी अपभ्रंश और संभवतः महाराष्ट्री अपभ्रंश के रूपों को एक सूत्र में पिरोने का प्रयत्न किया है।
हेमचन्द्र ने अपभ्रंश विषयक व्याकरण की रचना में किसी खास बोली का उल्लेख नहीं किया है। उनकी अपभ्रंश विषयक रचना परिपूर्ण है। उनके अपभ्रंश व्याकरण की महत्ता तब और बढ़ जाती है जब वे प्रत्येक सूत्र के लिये उद्धरण स्वरूप दोहा उपस्थित करते हैं। कभी-कभी तो एक सूत्र के लिये उन्होंने बहुत से दोहे उपस्थित किये हैं। उनमें से बहुत से दोहों का पता लगाने का प्रयत्न किया गया है। पिशेल ने उनमें से बहुत से दोहों को हाल की सतसई का बताया है। (1) बहुत से दोहे (कुछ छन्द) प्रेम सम्बन्धी चरित्र से युक्त हैं, लगभग 18 दोहे वीरता के चरित्र से परिपूर्ण हैं। (2) 60 दोहे के लगभग उपदेश से युक्त हैं (3) दश दोहे जैन धर्म से प्रभावित हैं। (4) 5 दोहे ऋषियों की कहानियों के संग्रह और पौराणिक कथ: से परिपूर्ण हैं-एक दोहा कृष्ण और राधा का, दूसरा बलि और वामन का, एक दोहा राम और रावण का और दो दोहे महाभारत सम्बन्धी हैं। प्रेम संबंधी दो दोहे ऐसे हैं जो कि मुंज से संबंधित हैं। ये संभवतः उन्हीं दिनों बनाये गये थे या तत्काल 10वीं शताब्दी के दुर्भाग्यशाली राजा