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प्राकृत वैयाकरण और अपभ्रंश व्याकरण
निष्कर्ष यह कि चण्ड ने मुख्यतया जिस भाषा का व्याकरण लिखा है, वह महाराष्ट्री है, किन्तु इसके साथ-साथ वह स्वयं 3, 37 में अपभ्रंश, 3, 38 में पैशाचिकी, तथा 3, 39 में मागधिका का उल्लेख करता है। 'आर्ष भाषा' का भी वर्णन उसने किया है। पूर्वोक्त समस्त बातों पर विचार करते हुए पिशेल (834) ने अपना निर्णय दिया है कि चण्ड, हेमचन्द्र से पुराना प्राकृत वैयाकरण है और हेमचन्द्र ने जिन-जिन प्राचीन व्याकरणों से अपनी समग्री एकत्रित की है, उनमें से एक यह भी है । पिशेल का पुनः यह कथन है कि इसकी अति प्राचीनता का एक प्रमाण यह भी है कि इसके नाना प्रकार के पाठ मिलते हैं । चण्ड संज्ञा और सर्वनाम के रूपों से (विभक्ति विधान) अपना व्याकरण आरम्भ करता है। इसके दूसरे परिच्छेद में उसने स्वरों के बारे में लिखा है (स्वर विधान) और तीसरे परिच्छेद में व्यंजनों के विषय में नियम बताये हैं (व्यंजन विधान ) । अन्तिम चौथा परिच्छेद है - (भाषान्तर विधान) जिसमें अन्य भाषाओं के नियम दिये हैं। इस नाम का अनुसरण करके इस परिच्छेद में महाराष्ट्री, जैन महाराष्ट्री और जैन शौरसेनी को छोड़कर अन्य प्राकृत भाषाओं के नियमों और विशेषताओं के बारे में लिखा गया है।
हेमचन्द्र
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अपभ्रंश की दृष्टि से सभी प्राकृत वैयाकरणों में हेमचन्द्र सर्व प्रमुख हैं। अपने सिद्धहेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण में उसने बड़ी सावधानी से अपभ्रंश का चित्रण किया है। इसमें सबसे बड़ी भारी विशेषता यह है कि उसने सूत्रों की व्याख्या में अपभ्रंश दोहों को प्रस्तुत किया है । महाराष्ट्री को छोड़ कर दूसरी प्राकृत की अपेक्षा अपभ्रंश के विषय में उसने अधिक ईमानदारी दिखाई है। 8 /4/329 से 448 तक के सूत्रों में उसने इसका वर्णन किया है । प्राकृत धात्वादेश सूत्र 8/4/2 से लेकर 4/259 तक हैं जिनमें कि बहुत से सूत्र वस्तुतः अपभ्रंश के लिये भी