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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
भाषा या बोली जो कि सर्वसाधारण जनता की होती है। इस बात की पुष्टि आचार्य हेमचन्द्र के काव्यानुशासन (अ० 8, 330-7) से होती है-अपभ्रंशभाषानिबद्धसन्धिबन्धमब्धिमथनादि, ग्राम्यापभ्रंश भाषानिबन्धावस्कन्ध कबन्धभीमकाव्यादि। अतः 'देसिलवअन' का प्रयोग जो अवहट्ट के साथ किया गया है उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि यह भाषा एक समय जनसाधारण की भाषा थी। और उस प्रकार की भाषा में कवि ने काव्य करने में गर्व का अनुभव किया क्योंकि विद्यापति मैथिल कवि थे। उनके गीतों की भाषा तथा कीर्तिलता की भाषा में अंतर पाया जाता है। यद्यपि कीर्तिलता में पूर्वी प्रयोग हैं किंतु वह गीतों की भाषा का प्रतिनिधित्व नहीं करती। अतः पूर्वोक्त उदाहरणों से देश भाषा जनसाधारण की (ग्राम्य) भाषा ही प्रतीत होती है। यह साधारण समाज में तथा-कथित निम्नवर्गवालों की भी एक भाषा कही गई है। भरत मुनि ने (अध्याय 17) भाषा तथा विभाषा दो प्रकार की भाषाओं का प्रयोग किया है।
भाषा के अंतर्गत सात भाषाओं का उल्लेख किया है-मागधी, आवंती, प्राच्या, सूरसेनी, अर्धमागधी, बाह्लीका और दाक्षिणात्या और विभाषा के अन्तर्गत शबर, आभीर, चांडाल, सचर, द्रविड़, उद्रज, हीन बनेचरों की भाषाएँ। जिस विभाषा का प्रयोग भरत मुनि ने किया है वह सुसभ्यों की भाषा नहीं थी। वह वस्तुतः अपढ़ असभ्यों की भाषा थी। उस भाषा को बोलनेवालों में आभीर आदि आते हैं। भरत मुनि से परवर्ती दंडी ने आभीर आदि की भाषा को 'अपभ्रंश' कहा है जो कि साहित्य में प्रयुक्त होती थी। इन समस्त विचारों के होते हुए भी देशी भाषा के अंतर्गत समस्त भाषाएँ एवं विभाषाएँ आ जाती थीं। जो कुछ भी हो, देशी और अपभ्रंश एक ही वस्तु नहीं थी। यदि होती तो फिर अपभ्रंश व्याकरण में हेमचन्द्र के देशी आदेश करने का कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता। दूसरी ओर हम हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों में उद्धृत दोहों से पता लगा सकते हैं कि देशी शब्दों की अपेक्षा तत्सम और तद्भव शब्द कहीं अधिक प्रयुक्त हुए हैं।