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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
के व्याकरणों का ढाँचा बिल्कुल भिन्न तरीके का है। वाक्यनिर्माण की द्रविड़ पद्धति में पूरक क्रिया सदा अंत में आती है। यह पद्धति पुरानी भारोपीय रचना से भिन्न है। उसमें शब्दों का अनुशासन बहुत कम होता है। किंतु आधुनिक आर्यभाषा और द्रविड़ परिवार की भाषाओं में समता सी दीखती है।
निष्कर्ष यह कि बहुत कुछ संभावना इस बात की है कि बहुत से देशी शब्द आर्य हैं भले ही मूल में वे संस्कृत के शब्द न हों। किंतु उनका कोई स्थान जरूर रहा होगा। वह छोटा हो सकता है। द्रविड़ों के लिये यही मूल साधन है। इस देश में प्रवेश करने पर आर्यों ने यहाँ विभिन्न जातियों द्वारा अधिकृत स्थानों को देखा और बहुत शताब्दियों तक निरंतर संघर्ष करने के बाद, भारत के विस्तृत भूभाग पर अपना अधिकार जमाया। पहले से अधिकार किए हुए लोगों में से कुछ लोग आर्यों में घुल मिल गए और उन लोगों ने अपनी भाषाओं से उनकी भाषाओं को प्रभावित किया। विजित जातियों पर अधिकार करनेवाले आर्य लोग अधिक बुद्धिमान थे। उन लोगों ने अपनी भाषाओं के शब्दों को मरने नहीं दिया, यद्यपि उन लोगों ने विजित जातियों के शब्दों को भी ग्रहण कर लिया था। इस विचारधारा के अनुसार और इसमें सच्चाई होने के कारण देशी प्राकृत में दोनों प्रकार के आर्य और अनार्य, शब्द पाए जाते हैं।
इस प्रकार हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि देशी में बहुत से शब्द मूल संस्कृत के हैं। इन दोषों को स्वीकार करते हुए भी इतना तो कहना ही पड़ता है कि शताब्दियों के प्रयोग से वे सबके सब शब्द खो गए हैं। वैयाकरणों द्वारा स्वीकृत ध्वनि-शास्त्र के नियमों के अनुकूल वे शब्द नहीं पड़ते। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि उन शब्दों का परिनिष्ठित संस्कृत से सम्बन्ध नहीं बैठ पाता। दूसरे प्रकार के शब्द भारोपीय हो सकते हैं, भले ही वे शब्द मूल संस्कृत के न हों। वे शब्द थोड़े से परिवर्तन के साथ भारोपीय की दूसरी जातियों की बोलियों में पाए जाते हैं। उसका थोड़ा सा भाग भारोपीय से इतर जातियों की भाषा में पाया जाता है। वे जातियाँ आर्यों के प्रवेश के पूर्व