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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
अब तक सम्भवतया हिन्दी में विशुद्ध रूप से अपभ्रंश भाषा और व्याकरण पर कोई उल्लेख्य पुस्तक प्राप्त नहीं थी। यहाँ पहली बार हिन्दी में ऐसा अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। पुरानी भाषा के विकास में अपभ्रंश के योगदान पर विचार करते हुये अपभ्रंश व्याकरण का अध्ययन करके उससे आधुनिक भाषाओं का विशेषतया हिन्दी का विकास दिखाया गया है। इस कारण हिन्दी भाषा और व्याकरण की दृष्टि से भी अपभ्रंश का अध्ययन अधिक उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण माना जायेगा। प्रस्तुत पुस्तक का मुख्य उद्देश्य इन उपेक्षित पक्षों की पूर्ति है।
अपभ्रंश-भाषा का समुचित ज्ञान हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों से ही होता है। हेमचन्द्र ने अपभ्रंश के लिए 120 सूत्र दिये हैं। अपभ्रंश सूत्रों के अलावा प्राकृत प्रकरण के द्वितीय पाद के धात्वादेश भी वस्तुतः अपभ्रंश के ही सहकारी रूप में है जबकि उन्होंने शौरसेनी के लिए 260-286, मागधी के लिये 287-302, पैचाशी के लिए 303-324 और चूलिका पैशाची के लिए 325328 ही सूत्र दिये हैं। अन्य प्राकृत वैयाकरणों ने अपभ्रंश पर इतना विस्तार से नहीं लिखा है। यद्यपि मार्कण्डेय ने अवश्य अपभ्रंश पर विस्तार से लिखा है, किन्तु व्याकरण का ज्ञान हेमचन्द्र का ही सबसे अधिक परिपूर्ण दीख पड़ता है। इन्होंने प्राकृत व्याकरण के आठवें अध्याय के 120 सूत्रों में अपभ्रंश का ज्ञान दिया है। इसमें भी अन्तिम दो सूत्र सामान्य प्राकृत भाषा पर लिखा है। अवशिष्ट 118 सूत्रों को व्याकरण के विभिन्न रूपों में विकसित किया गया है।
ISBN 81-85970-19-X