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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
रचनायें विशुद्ध साहित्यिक दृष्टि से लिखी गयी थीं। एक समय ऐसा भी था जबकि गुजरात आदि प्रान्तों में अपभ्रंश साहित्य की रचनाओं के प्रति बड़ा प्रबल आकर्षण था ।
शौरसेनी अपभ्रंश का फैलाव
इस तरह 7वीं या 8वीं शताब्दी में पश्चिम भारत में ऐसा प्रबल झंझावात आया जिसने भारत के समस्त उत्तराखण्ड को झकझोर दिया । राजनीतिक कारणों से समस्त उत्तर भारत में शौरसेनी अपभ्रंश का फैलाव हो गया। सांस्कृतिक कारणों ने इसे पल्लवित और पुष्पित किया । इस अपभ्रंश में अपनी रचनाएँ लिखकर पूर्व के लोग अपने को उसी प्रकार गौरवान्वित समझते थे जिस प्रकार शूरसेन प्रदेश के लोग इसमें रचना लिखकर अपने को गौरवान्वित करते थे। राजस्थान, गुजरात तथा महाराष्ट्र ने भी इसी अपभ्रंश को साहित्यिक रचना के लिये अपनाया । पश्चिम भारत में विशेषतया राजस्थान और गुजरात में शौरसेनी अपभ्रंश को बढ़ावा देने वाले जैनी लोग थे । इन आचार्यों तथा पण्डितों के प्रभाव से जहाँ एक ओर शौरसेनी अपभ्रंश में रचनाएँ लिखी गयीं वहीं दूसरी ओर 1000 ई० के लगभग सौराष्ट्र अपभ्रंश से उद्भुत पुरानी पश्चिमी राजस्थानी में भी रचनाएँ की जाने लगीं । किन्तु परिनिष्ठित साहित्यिक दृष्टि से शौरसेनी अपभ्रंश की रचना निरन्तर होती रही। ये रचनाएँ बहुत कुछ माने में पूरबी अपभ्रंश की साहित्यिक रचनाओं से भिन्न होती जा रही थीं। इस साहित्य का परवर्ती रूप प्राकृते पैंगलम् में देखा जा सकता है। पिंगल नाम करके तो एक साहित्यिक धारा ही बन गयी। इसमें रचनाएँ राजस्थानी आदि स्थानों में होने लगीं । प्राकृत पैंगलम् की भाषा पश्चिमी अपभ्रंश से प्रभावित है। वस्तुतः यह शौरसेनी अपभ्रंश का ही प्रतिनिधित्व करती है। 'पिंगल' शब्द 'छन्द' को भी कहते हैं। हम देखते हैं कि पिंगल और डिंगल दो शब्द प्रचलित हो गये थे। डिंगल राजस्थान की काव्यात्मक भाषा हो गयी थी। शौरसेनी अपभ्रंश से ही पुरानी व्रजभाषा, और उससे
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