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अपभ्रंश भाषा
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गया है। भारत के बाहर से आने वाली युद्ध प्रकृति की कुछ जातियों में शक, गुर्जर आदि का उल्लेख किया जाता है। इसका खण्डन करते हुए जयचन्द्र विद्यालंकार 10 ने लिखा है कि- कन्नौज के सम्राट् गुर्जर प्रतिहार थे । चन्द के किस्से के साथ एक अंग्रेज विवेचक ने यह बात जोड़ी कि गुर्जर नाम छठी शताब्दी से चली है। गूजर लोग पंजाब, कश्मीर और स्वात में भी हैं, अतः वे हूणों के साथ बाहर से आये । पर कश्मीर और स्वात में जो गूजर हैं वे आज भी स्थानीय शब्दों से मिश्रित राजस्थानी बोलते हैं, इससे उनका राजस्थान से बाहर गया होना सिद्ध होता है । पच्छिमी पंजाब की भाषा में गाय-भैंस पालने वाले गुज्जर और बकरी पालने वाले अजिड़ या आजड़ी कहलाते हैं। अजिड़ जैसे 'अजा' से बना है, वैसे गुज्जर गो से, उसका अर्थ गोपाल है और कुछ नहीं । महामहो - पाध्याय गौरी शंकर हीरा चन्द्र ओझा ने लिखा है कि गुर्जर प्रतिहारों की तरह ब्राह्मण प्रतिहार भी थे । 'गुर्जर प्रतिहार' का अर्थ- गुर्जर देश के प्रतिहार था । 'प्रतिहार' का अर्थ द्वारपाल होता है । प्रतिहार वंश का संस्थापक कोई राजा का प्रतिहार होगा । 'राष्ट्रकूट' (राठौर) का अर्थ प्रदेश शासक था। कहने का तात्पर्य यह है कि राजपूत शब्द जाति के अर्थ में 16वीं शताब्दी तक भारतीय इतिहास या वाङ्गमय में कहीं नहीं मिलता। अल्बरूनी या कल्हण उसका कहीं भी उल्लेख नहीं करते, चौथी राजतरंगिणी में जो अकबर के प्रशासन में लिखी गयी, उसका उस अर्थ में प्रयोग है। यह शब्द जाति सूचक होकर मुगलों के समय अथवा उसके कुछ पूर्व सामान्य रूप से प्रचार में आने लगा।'' इतना विस्तार से लिखने का एक मात्र उद्देश्य यह है कि इस राजपूती इतिहास में प्राचीन तथा नवीन जातियों के सम्पर्क से एक ऐसी जाति का निर्माण हुआ जिसे इतिहासकारों ने राजपूतकाल कहकर पुकारा था । यह संक्रान्ति काल का युग था । बहादुरों को अपनी शक्ति अजमाने का पूरा अवसर मिलता था। थोड़ा सा भी शक्ति सम्पन्न व्यक्ति राजा होने का स्वप्न देखा करता था। राजा लोग