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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
शौरसेनी का वह परवर्ती रूप है जो गुजरात और राजस्थान में बोली जाने वाली बोलियों से मिश्रित हो गयी थी। राजशेखर ने इसी भूभाग के अपभ्रंश का वर्णन किया है। इसी को वैयाकरणों ने नागर अपभ्रंश कहकर पुकारा है। इसका आदिम साहित्यिक रूप कालिदास के विक्रमोर्वशीय के कुछ पद्यों में पाया जाता है। शौरसेनी अपभ्रंश का परिनिष्ठित रूप हेमचन्द्र के अपभ्रंश व्याकरण के उदाहृत दोहों में शौरसेनी या नागर अपभ्रंश की कई बोलियों का रूप पाया जाता है । यह मुख्यतया गुर्जर, आवन्त्य तथा शौरसेनी तीन मुख्य भागों का प्रतिनिधित्व करता है। गुर्जर बोली का परवर्ती रूप 'जूनी गुजराती' या प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में पाते हैं। आवन्त्य बोली का विकसित रूप मालवी बोली है। शौरसेनी, जो कि शूरसेन प्रदेश की भाषा थी - की विभाषा में पूर्वी राजस्थानी, व्रज तथा दिल्ली, मेरठ और सहारनपुर आदि की बोलियाँ हैं । इसी शौरसेनी अपभ्रंश में पाहुड़ दोहा, सावयव धम्म दोहा और णयकुमारचरिउ आदि रचे गये थे। डॉ० चटर्जी ने शूरसेन प्रदेश को शौरसेनी अपभ्रंश कहा है; जो इससे भिन्न है उससे अपभ्रंश का पृथक्करण करते हुए उन्होंने कहा कि नागर अपभ्रंश को भी जैनियों ने संकलित किया था और यह संभवतः परवर्ती म० भा० आ० की बोलियों पर आधारित थी । इस शौरसेनी से राजस्थानी गुजराती की बोलियाँ बहुत अधिक सम्पृक्त थीं 108 । इसी बात की पुष्टि प्रो० पिशेल और ग्रियर्सन आदि ने भी की है; इसी शौरसेनी अपभ्रंश का प्रयोग पूर्वी भारत में भी किया जाता था । अपभ्रंश काल में, पूरब के कवि लोग अपनी स्थानीय भाषा में कविताओं का बहिष्कार कर शौरसेनी अपभ्रंश का प्रयोग करते थे। पश्चिमी साहित्यिक शौरसेनी की भाषा में लिखने की परम्परा पूरब में भी निरन्तर चालू रही जबकि स्वतः पूरबी भाषाओं में भी कविता लिखी जाती थी। दोनों प्रकार की रचनाएँ साथ-साथ चलती थीं। इस शौरसेनी अपभ्रंश की परम्परा विद्यापति के समय तक चली | विद्यापति ने जो कि 14वीं शताब्दी में हुए थे - जहाँ एक ओर मैथिली में
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