________________
हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
उनका कहना है कि इसने पश्चिमी अपभ्रंश के वैयाकरण हेमचन्द्र के नियमों का अनुसरण न कर पूर्वी वैयाकरण मार्कण्डेय, राम तर्कवागीश तथा क्रमदीश्वर के व्याकरण चिह्नों का अधिक अनुकरण किया है। इस कारण दोहा कोश की भाषा को पूर्वी अपभ्रंश कहा जाता है तथा तिब्बती परम्परा पर आधारित होने के कारण इसे बौद्ध अपभ्रंश कहना अधिक उचित समझा जाता है। सरह और कण्ह को बंगला का पूर्वज भी मानते हैं और उड़िया, मैथली का भी पूर्वज इसे ही माना जाता है। उनके उपदेशक जालन्धरी या जालन्धर नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ के समकालीन थे जो कि नेपाल के राजा नरेन्द्र देव के राज्य 657 ई० में थे; दूसरे गोपी चन्द्र राजा भर्तृहरि के सम्बन्धी थे। भर्तृहरि मालवा के राजा थे। उनकी मृत्यु 651 ई० में हुई । इन प्रमाणों के आधार पर शहीदुल्ला ने कण्ह को 700 ई० का बताया है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन 04 ने सिद्ध सरहपा की मृत्यु का समय 780 ई० के करीब माना है । इरा तरह इन सिद्धों की परम्परा में बहुत से कवि थे जो बौद्ध धर्म के अन्तर्गत थे और अपभ्रंश भाषा में रचना करते थे। तिब्बत आदि में संरक्षित बौद्ध साहित्य यदि प्रकाश में आ जाये तो सिद्धों की कविता के रूप में अपभ्रंश भाषा का साहित्य प्रचुर मात्रा में प्राप्त होने लगे ।
134
वस्तुतः पुष्पदन्त, स्वयंभू और सिद्धों की भाषा में कोई खास अन्तर नहीं है । यह अवश्य है कि जब किसी भी भाषा और साहित्य का विकास विस्तृत भूभाग तक हो जाता है तब यह स्वाभाविक है कि उन रचनाओं में क्षेत्रीय प्रयोग भी समाविष्ट हो जाये। पं० राहुल जी ने दोहा कोश के भूतकालिक प्रयोग को अवधी के सबसे अधिक नजदीक पाया है। इसके इल-अल प्रत्यय का प्रयोग भोजपुरी आदि में बहुत बाद में होने लगा । पर विनयश्री जो विक्रमशिला (भागलपुर) के थे ने 12वीं. शदी के अन्त में इल, अल का बहुत प्रयोग किया है; जैसे फुल्लिल्ल (गीति 1), गोल्लिअहं, झंपाविल्ल, भइल्ल ( गी० 2 ) आदि । वस्तुतः साहित्यिक