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अपभ्रंश भाषा
पवित्रता को सुरक्षित बनाये रखने के लिए इतनी आसक्ति बनी रही है कि सभी चीजों को संस्कृत के चश्मे से ही देखा गया है । यही कारण है कि अनार्य शब्दों को भी संस्कृत के ढंग पर ढालने का प्रयत्न किया गया है, उदाहरण स्वरूप तन्त्रवार्तिक में कहा गया है कि अगर आर्य लोग द्राविड़ शब्दों को संस्कृत के मुताबिक ढ़ालने लगेंगे तो और भी फारसी, यवन और रोमन आदि के शब्दों को भी ढालना पड़ेगा”, इसी तरह के विचार श्रीधर और जयन्त भट्ट ने न्यायमंजरी में किया है; शाबर और कुमारिल प्रायः इसी तरह के विचार रखते हैं। तात्पर्य यह कि संस्कृत को सर्वोपरि उत्कृष्ट बनाये रखने की भावना बहुत दिनों से पायी जाती है। संस्कृत नाटकों की प्राकृत की भाषा कृत्रिम है । यही कारण है कि जहाँ कहीं भी नाटकों में अपभ्रंश का प्रयोग किया गया है वह भी कृत्रिम है, संस्कृत से प्रभावित है । स्वतन्त्र रूप से जो अपभ्रंश काव्य रचे गये हैं उनमें स्वाभाविकता है। देशी भाषा का प्रयोग विशिष्ट रूप से मिलता है। वह वस्तुतः लोक भाषा का प्रतिनिधित्व करती है । जिस तरह वह विचारों में स्वतन्त्रता रखता है, अपना निजी अस्तित्व नहीं खोता उसी तरह भाषा के प्रयोग में अपना निजी अस्तित्व रखता है ।
जनता की भाषा के रूप में
हेमचन्द्र के अपभ्रंश दोहे विविध काव्यों से संकलित किये हुए हैं अतः उसमें भाषा की विविधता पाना स्वाभाविक है ये उदाहरण स्वरूप लिखे गये दोहे संवारे सुधारे हुए हैं। इनमें कहीं-कहीं कृत्रिमता की झलक भी मिलती है, संस्कृत के तद्भव एवं तत्सम रूपों की बहुलता भी दृष्टिगोचर होती है। धनपाल कृत भविसत्त कहा और स्वयंभू कृत पउमचरिउ की भाषा में स्वाभाविकता अधिक है । प्रतीत होता है कि ये रचनायें अपने समय की जीवन्त भाषा का प्रतिनिधित्व करती हैं। उस भाषा में देशी प्रयोग अधिक है । इसीलिये कभी-कभी वह आजकल अर्थ समझने में दुरूह भी हो जाती है, उलझनें उपस्थित
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