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अपभ्रंश भाषा
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फलतः इसका भी साहित्य निर्मित हो चला। इसमें बहतेरे साहित्य रचे जाने लगे। लगभग ईसा के 500 शती तक इसमें साहित्य रंचा जा चुका था। इस समय तक इसे साहित्यिक मान्यता मिल चुकी थी और 1000 ई० तक निरन्तर साहित्य लिखा जाता रहा यद्यपि अपभ्रंश में बाद तक साहित्य लिखा जाता रहा। यह अपभ्रंश का परवर्ती काल है जिसे अवहट्ट कहते हैं। और अवहट्ट के कवियों ने अपनी भाषा को जनता की भाषा कहा है। किन्तु इतना तो निश्चित है कि ई० 1000 के बाद न० भा० आ० भाषा ने अपना विकास करना आरम्भ कर दिया था। प्रान्तीय अपभ्रंशों से न० भा० आ० भाषाओं का प्रादुर्भाव हुआ है। इस प्रकार इस अपभ्रंश के कई क्षेत्रीय भेद हुए। इन्हें हम महाराष्ट्री अपभ्रंश, मागधी अपभ्रंश, अर्धमागधी अपभ्रंश, शौरसेनी अपभ्रंश और पैशाची अपभ्रंश आदि कहते हैं। जैसे प्राकृत के क्षेत्रीय भेद-शौरसेनी, मागधी प्राकत आदि होते हुए भी परिनिष्ठित प्राकृत एक ही थी वैसे ही अपभ्रंश के क्षेत्रीय भेद होते हुए भी परिनिष्ठित अपभ्रंश एक ही थी जिसमें कि सारा साहित्य लिखा गया। इसी कारण जब अपभ्रंश जन भाषा थी और उसका एक सुसमृद्ध साहित्य था तो पुराने प्राकृत वैयाकरणों ने इसके कई क्षेत्रीय भेदोपभेद किये। उन भेदों में प्रमुख भेद नागर, उपनागर और ब्राचड आदि किया। कुछ लोगों ने ग्राम्या का भी उल्लेख किया है।
अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि एक समय यह जनता की भाषा थी। तभी उसमें साहित्य आदि लिखे जाते रहे। डा० कीथ83 का यह कहना कि यह केवल साहित्यिक भाषा थी कभी जनभाषा नहीं रही अतः प्रामाणिक भाषा नहीं रही, तर्कसंगत एवं प्रमाणविहीन प्रतीत होता है। इसी प्रकार प्रो० उलनर84 का यह कहना कि अपभ्रंश का प्रयोग साहित्य के लिये कोई बहत अधिक नहीं होता था, असंगत एवं तथ्यहीन का परिचायक प्रतीत होता है। उनका यह भी कहना युक्तिहीन है कि अपभ्रंश केवल सामान्य आंचलिक (कोलिकिंयल) बोली का प्रतिनिधित्व करती है