________________
अपभ्रंश भाषा
103
से ही की जानी चाहिये, पुराने आचार्यों के अनुसार अन्तर्वेदी०० से नहीं। उसका कहना है कि राजा और कवि समाज के मध्य में बैठें। आगे पुनः गुलेरी जी कहते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है मानो राजा का कवि-समाज भौगोलिक भाषा निवेश का मानचित्र हुआ। यों कुरुक्षेत्र से प्रयाग तक अन्तर्वेद, पांचाल और शूरसेन, इधर मरु, अवन्ती, पारियात्र और दशपुर शौरसेनी और भूत भाषा के स्थान थे। उसने कहा है कि प्रमुख भाषायें प्रमुख देशों में अच्छी तरह उच्चरित होती हैं। गौड़ादि लोग (बंगाल और बिहार) संस्कृत में अच्छी अभिरुचि रखते हैं (संस्कृत में स्थित हैं) लाटदेशियों की रुचि प्राकृत में परिचित हैं। किन्तु सभी राजस्थान के लोग (मरुभूमि), टक्क (टांक दक्षिण पश्चमी पंजाब) और भादानक2 के निवासी गण अपभ्रंश भाषा में ही अपना व्यवहार करते हैं। आवन्ती (उज्जैन), पारियात्र (बेतवा और चंबल का भाग) और दशपुर (मंदसोर) के निवासी भूत भाषा (पैशाची) का आदर करते हैं किन्तु जो कवि मध्यदेश (कन्नौज, अन्तर्वेद, पंचाल आदि) में रहते हैं वे सभी भाषाओं में प्रवीण हैं।
अतः राजशेखर के दिनों में संस्कृत साहित्य का प्रचार बंगाल और बिहार के भागों में था। प्राकृत साहित्य लाट देश में यानी कठियावाड़ को छोड़कर गुजरात में और अपभ्रंश साहित्य का प्रयोग समस्त मरुदेश अर्थात् मारवाड़, टक्क (पंजाब का दक्षिणी और पश्चिमी हिस्सा) तथा भादानक देश (जिसका कि पूर्ण पता नहीं चलता) में होता था। पैशाची साहित्य का प्रयोग आवन्ती (मध्य मालवा में), पारियात्रा पश्चिमी बिन्ध्य प्रदेश में और दशपुर अर्थात् पिछले मालवा में होता था। किन्तु यह ध्यान देने की बात है कि राजशेखर ने यह नहीं बताया कि ये भाषायें इन क्षेत्रों में बोली भी जाती थी कि नहीं। उसने केवल यही कहा है कि इस भाग के साहित्यिक लोग अपने विचारों को इन विभिन्न भाषाओं में प्रकट करना अधिक पसन्द करते हैं। एक और दूसरा उदाहरण देकर राजशेखर ने अपभ्रंश के पढ़ने के विषय में बताया है कि “सुराष्ट्र (काठियावाड़), त्रवण (उस भाग का नाम पता नहीं चलता)