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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
धारसेन और विष्णुधर्मोत्तर के बारे में पहले लिखा जा चुका है। हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन +7 (अ० 8, 330-7) में काव्य विषयक सर्ग, श्वास, सन्धि, अवस्कन्ध आदि महाकाव्य के रूपों पर विचार करते हुए संस्कृत और प्राकृत के साथ अपभ्रंश का उल्लेख करके ग्राम्य भाषा का भी उल्लेख किया है। अपभ्रंश भाषा के काव्य को निबद्ध करने वाले सन्धि आदि को बताकर ग्राम्य अपभ्रंश भाषा के काव्य का भी रूप बताया है। इससे पूर्ण स्पष्ट हो जाता है कि हेमचन्द्र के समय में अपभ्रंश भाषा का दो रूप स्पष्ट सा हो गया था - 1. एक परिष्कृत भाषा का 2. और दूसरा ग्राम्य अपभ्रंश भाषा का । हेमचन्द्र के काव्यानुशासन के अनुसार दोनों में काव्य लिखे जाते थे। क्योंकि उसने दोनों प्रकार की भाषा के काव्य रूपों का वर्णन किया है ।
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स्कन्द स्वामी " का समय विक्रम सम्वत् 650 माना जा जाता है। उसने भामह तथा कुमारिल दोनों का उल्लेख किया है । कुमारिल ने तन्त्रवार्तिक 1/3/12 में लिखा है - झवर्णकारांपत्ति मात्रमेव प्राकृतापभ्रंशेषुदृष्टम् । बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति ने भी अपभ्रंश भाषा का उल्लेख किया है - प्राकृतापभ्रंश द्रमिडान्ध्र भाषावत् (वाद न्याय, पृ० 107 ) । कुमारिल ने उसी तन्त्रवार्तिक में एक जगह विस्तार से शब्दशास्त्र पर विचार करते हुए अपभ्रंश और अपभ्रष्ट का उल्लेख किया है" ।
षट् भाषा के अन्तर्गत अपभ्रंश का स्थान
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वररुचि को छोड़कर अन्य प्राकृत वैयाकरणों ने षट्भाषा के अन्तर्गत अपभ्रंश को स्थान दिया है। और दूसरे रुद्रट, भोजराज, जिनदत्त और अमर चन्द्र आदि ने भी षट्भाषा का निर्देश किया है और उसी में अपभ्रंश का भी वर्णन किया है । चण्ड ̈ ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, मागधी और शौरसेनी का निर्देश अपने व्याकरण में किया है। हेमचन्द्र ने भी भाषा के छह भेद करके उसी के अन्तर्गत अपभ्रंश को रखा है । चण्ड की तरह हेमचन्द्र का भी भेद है । त्रिविक्रम का भी विभाजन इसी तरह का है 1