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अपभ्रंश भाषा
इलाहाबाद के स्तम्भ पर खुदे हुए समुद्रगुप्त के लेख (ईस्वी 360) से पता चलता है कि राजस्थान, मालवा और गुप्त साम्राज्य के दक्षिण पश्चिम तथा पश्चिम भाग में आभीर और मालव लोग शासन करते थे। क्रमशः यह जाति प्रबल होती गयी और इनका साम्राज्य दक्षिण तथा पूर्व की ओर भी बढ़ता गया। 8वीं शताब्दी में जब 'काठी' लोगों ने सौराष्ट्र पर आक्रमण किया तो उस समय वह देश आभीरों के अधिकार में था। मिर्जापुर में 'अहिरोरा' और झांसी में 'अहिरबार' प्रसिद्ध स्थान हैं। इस पर विद्वानों का विश्वास है कि ये दोनों जगह जरूर ही आभीरों के अधीन रहे होंगे। यों तो आभीरों का वर्णन महाभारत में भी आया है। कृष्ण की विधवा स्त्रियों को लेकर लौटते हुए अर्जुन के साथ इन लोगों की लड़ाई का भी वर्णन पाया जाता है। इन्हें हमारे यहाँ अनाथ कहकर पुकारा गया है। मनुस्मृति के अनुसार इनकी उत्पत्ति ब्राह्मण पिता और अम्बष्ठ माता से हुई थी ब्राह्मणात् आभीरेऽम्बष्ठ कन्यायाम् (अध याय 10-15) इत्यादि। इस प्रकार हम यह भी अनुमान कर सकते हैं कि आभीरों का जब साम्राज्य स्थापित हो गया तो उन लोगों ने अपभ्रंश बोली को जो कि उन लोगों के राजनीतिक विकास के साथ-साथ भाषा का रूप धारण कर रहा था-राजकीय सम्मान प्रदान किया। यह पद पाकर यह भाषा जन सामान्य से लेकर समाज के उच्चतम वर्गों तक में आदर पाती रही। यह परिष्कृत रूचि वालों की भी भाषा हो गयी। साहित्य का निर्माण होने लगा। काव्य के विविध रूप रचे जाने लगे। साथ ही अन्य विषयों का भी निर्माण इस भाषा में होने लगा। यह सोचने विचारने तथा लिखने की भाषा हो गयी। इसने प्राकृत की क्षेत्रज बोली से (भरत ने जिसे विभाषा या विभ्रष्ट कहकर पुकारा है) विकसित होकर आभीरों के साथ राजनीतिक उत्थान पतन के कारण भाषा का रूप धारण कर साहित्यिक मर्यादा का पद प्राप्त किया। इसकी भी प्रतिष्ठा और सम्मान सुसंस्कृत लोगों के बीच में संस्कृत तथा प्राकृत की भांति होने लगी। हो सकता है इन्हीं सभी कारणों को अपने विचार में रखकर दण्डी ने इसे आभीर आदि की भाषा कही हो। किन्तु यह ध्यान देने की बात है कि दण्डी के वक्तव्य से ऐसा प्रतीत