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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
के समय या उसके कुछ पूर्व राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति के कारण आभीरों ने समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। नहीं तो दण्डी के साहित्यिक अपभ्रंश के आभीर आदि लोग तथा भरत की विभाषा के शबर, आभीर आदि लोगों का वर्णन वस्तुतः एक ही प्रकार से नहीं होता । अन्तर है तो केवल सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितयों के परिवर्तन की झंझावात का ।
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भरत ने विभाषा के अन्तर्गत जिन लोगों का उल्लेख किया है वे समाज के पिछड़े हुए वर्ग, निम्न वर्ग और आदिम जाति के वर्गों की बोलियों का प्रतिनिधित्व करते थे। भरत के समय वे लोग केवल पश्चिमोत्तर भारत में ही न रहकर समस्त भारत में फैले हुए थे । भरत ने स्वतः उन लोगों के वर्गों के विभाजन की व्याख्या की है साथ ही साथ उनमें से कुछ बोलियों की भी व्याख्या की है
अङ्गरकारव्याधानां काष्ठपन्त्रोपजीविनाम् ।
योज्या शबरभाषा तु किञ्चिद्वानौकसी तथा । ।
ना० शा० 18/41-42
गाजाश्वाजाविकोष्ट्रादिघोषस्थाननिवासिनाम् । आभीरोक्तिः शाबरी स्यात् द्राविडी द्रविडादिषु । ।
ना० शा० 18/42-44
शबर शब्द का अर्थ कोयला बनाने वाला, शिकारी और जो काष्ठ कला (ऊड क्राफ्ट) पर जिन्दगी बसर करते थे, इसके अतिरिक्त जंगली लोग जिनके लिए भरत ने 'वनौकसी' शब्द का प्रयोग किया है । 'आभीर' और 'शाबरी' शब्द का प्रयोग चरवाहा (गाय चराने वाला), गड़ेरिया, और कोचवान आदि के लिये हुआ था। इस पर जार्ज ग्रियर्सन ने (जनरल एशियाटिक सोसाइटी1918 पृ० 491) लिखा है कि शबर और आभीर दोनों ट्राइव जातियाँ