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अपभ्रंश भाषा
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लिखा हुआ है जिसे कि ब्यूलर 2 महोदय उचित नहीं मानते और इसका समय ईस्वी सन 678 के लगभग माना है। इससे सिद्ध हो जाता है कि अपभ्रंश का साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान हो चुका
था।
दण्डी
पी० वी० काणे” ने दण्डी को भामह से पूर्ववर्ती माना है दण्डी ने अपने काव्यादर्श में साहित्य के 4 चार भेद किये हैं- 1. संस्कृत 2. प्राकृत 3. अपभ्रंश और 4 मिश्र । संस्कृत को उसने देववाणी कहा है । भरत के विचार से समता रखते हुये प्राकृत के तीन क्रम माने हैं - 1. तत्सम, 2. तद्भव और 3. देशी । किन्तु अपभ्रंश की व्याख्या उसने दो तरह से की है
1. काव्यों में आभीर आदि की वाणी अपभ्रंश कहाती है-आभीरादि गिरः काव्येषु अपभ्रंश इति स्मृतः
2. शास्त्रों में (व्याकरण से तात्पर्य है ) संस्कृत से भिन्न शब्दों को अपभ्रंश कहते हैं- शास्त्रेषु संस्कृतादन्यदपभ्रंश तयोदितम् ।
इन उक्तियों से स्पष्ट हो जाता है कि दण्डी ने संस्कृत भाषा तथा प्राकृत भाषा के समान अपभ्रंश भाषा को तो महत्व दिया ही है साथ ही साथ इन दोनों भाषाओं के काव्यों की महत्ता के समान ही अपभ्रंश के काव्य को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उसने बताया है कि संस्कृत में जहाँ सर्ग बन्धादि को महत्व दिया जाता है, प्राकृत में जहाँ सन्धिकादि की महत्ता है वहीं पर अपभ्रंश के काव्यों में भी ओसरादि का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके अतिरिक्त उसने 'नाटकादि' को मिश्रक माना है। नाटक के साथ जुटे हुए आदि पद से ( नाटकादि तु मिश्रकम् - 1- 37 ) प्रतीत होता है कि वह कुछ और दूसरी चीज की ओर संकेत कर रहा है- शायद वह चम्पू के लिये है - या संभवतः गद्य के लिये है; यह स्पष्ट नहीं है ।