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प्राकृत
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पूर्वोक्त प्रमाणों के आधार पर भी अर्धमागधी भाषा की भौगोलिक स्थिति का स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता कि अर्धमागधी का मागधी से जरूर सम्बन्ध था। मागधी भाषा की जो उच्चारण पद्धति है उसी से मिलता-जुलता उच्चारण अर्धमागधी भाषा का भी है जो कि स्वाभाविक भी है। इस समय प्राचीन हस्त-लिखित जैन आगम का बीज जो जैन साहित्य में प्राप्त होता है उसी से अर्धमागधी की उच्चारण पद्धति का ज्ञान हो सकता है।
व्यापक प्राकृत की उच्चारण पद्धति अर्धमागधी भाषा में भी मिलती है। विशेष रूप से मागधी भाषा का उच्चारण अर्धमागधी भाषा में पाया जाता है। मागधी में र के बदले ल का उच्चारण प्रचलित है और अर्धमागधी में भी र के बदले ल का उच्चारण प्रचलित है। जैन आगम की प्रचीन पोथियों में तकार वाला शब्द विशेष रूप से पाया जाता है; जैसे-प्राकृत-वइ या वय, अर्धमागधी-वति, संस्कृत वचस, प्रा०-वजिर, वइर, अ० मा०-वतिर, सं० वज आदि । वस्तुतः इन तकार वाले उच्चारण की खास विशेषता मागधी ही है। अर्धमागधी की प्रथमा विभक्ति के एक वचन का प्रयोग भी उसी तरह है। जैसे-प्रा०-वीरो, मा०-वीरे, अ० मा०-वीरे, वीरो, सं०-वीरः आदि। प्रायः ये ही अर्धमागधी के उच्चारण की खास विशेषतायें हैं। इसके खास उच्चारणों को हेमचन्द्र ने 'आर्ष व्याकरण' में कई उद्धरणों से स्पष्ट किया है-प्रा०-सिविण, आर्ष या अ० मा०-सुविण, सं०-स्वप्न, प्रा० पुराकम्म-आ० या अ० मा०-पुरेकम्म, सं०-पुराकर्म आदि । इस तरह प्राकृत में भी जैन साहित्य के अर्धमागधी विशेषता वाले प्रयोग बहुत है। अर्धमागधी की व्याकरणिक कुछ मुख्य विशेषतायें
प्राकृत में लोक भाषाओं के बोलचाल की भाषा का उच्चारण भेद समय-समय पर होता रहा है। इस कारण किसी भी लोक भाषा में एक सरीखा उच्चारण नहीं रहा। इस दृष्टि से किसी भी लोकभाषा में उच्चारण की दृष्टि से कभी भी एक निश्चित
धमागधी की प्रथा