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इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्राणियों को मारने वाला, छेदने वाला, उनकी स्वतन्त्रता को कुचलने वाला तथा उनको हर तरह से आघात पहुँचाने वाला बन गया था।
__ मैं अपनी उस मूच्छभिरी दुरावस्था को याद कर-कर के पश्चात्ताप करता हूँ कि जब मेरी इच्छाएँ तृप्त नहीं होती थी तो मैं और अधिक निर्दयी हो जाता था। मैं अधिक शोक सन्तप्त होता था, अधिक क्रोध करता था, अधिक प्रतिशोध लेता था और अन्य प्राणियों को अधिक सताता था। सतत हिंसा के क्षेत्र में कुकार्यरत रहने के कारण मैं अधिक भयभीत भी रहता था। प्रमाद की गहराई में डूबकर मैं मानसिक तनावों से त्रस्त रहता था, किन्तु दोगला व्यवहार करता था। बाहर से मैं अपने आपको बहादुर और निर्भीक जाहिर करता था जबकि हर समय मैं चारों ओर के भय से डरा हुआ रहता था। बाहर से अपने को शान्त दिखाने का ढोंग करता था जबकि भीतर के तनाव मुझे प्रतिपल अशान्त बनाये रखते थे। दुनिया के सामने मेरे द्वारा दिखाया जाने वाला ढोंग ऐसा ही था जैसे कोई रस्सी से बंधी चालनी को कुए में डाल कर वहाँ से पानी निकालते रहने का ढोंग करे । वस्तुतः मैं संसार रूपी प्रवाह में तैरने के लिये कतई असमर्थ हो गया था। इसका कारण साफ था कि मैं सदा और सर्वत्र जघन्य कामभोगों का ही अनुमोदन करता रहता था जिसके परिणाम स्वरूप मैं दुःखों के भंवर में ही गोते लगाता रहता था। मेरी चेतना की निरन्तर विकसित होती हुई उस जागृति ने मुझे आत्मालोचना की शिक्षा दी और मूर्छित मनुष्यों के संसर्ग से बाहर निकल जाने की मुझे प्रेरणा दी और इसी प्रेरणा ने मेरी गति को नया बल दिया कि वह आध्यात्मिकता के मार्ग पर आगे बढ़े।
मैं आज स्वानुभव के आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि मनुष्य जब अपने ही मूल स्वरूप तथा अपने ही अस्तित्व को भूल जाता है तब वह वे सब अनर्थ करने पर उतारू हो जाता है जो उसे सांसारिकता की विकृत परतों में समेट लेते हैं। वह स्वयं भी मोह-ममत्त्व से लिप्त होकर तथा राग-द्वेष व प्रमाद के बंधनों से बंधकर इतना मूर्छा-ग्रस्त हो जाता है कि कालिमामय उन परतों को छेद कर उसका पुनः बाहर आना असाध्य नहीं तो दुसाध्य अवश्य हो जाता है।
मैंने इस सत्य को भी जाना है कि इस संसार की दलदल में फंसे हुए लोगों में से कुछ मनुष्य ऐसे संवेदनशील होते हैं जो किसी भी निमित्त से जागृत होने वाली अपनी चेतना के बल पर अपनी मूर्छा को अन्ततोगत्वा तोड़ ही देते हैं। एक बार मूर्छा टूटती है और आदमी अपने आपे में आता है तो उसके ज्ञान और विवेक के द्वार भी खुल जाते हैं। फिर यह उसकी जागती हुई चेतना के बलाबल पर ही निर्भर करता है कि आत्म विकास की महायात्रा में उसकी गति का क्या स्वरूप बनता है।
अज्ञान, आसक्ति और ममत्व मैं आज जब अपनी आत्मालोचना के क्षेत्र में खड़ा हूँ तो मैं चाहता हूँ कि अज्ञान, आसक्ति एवं ममत्व की अपनी कुंठाओं को याद करूं, उनकी पतनकारी पकड़ से चेतूं तथा इन आत्मघाती वृत्तियों से अपने साथियों को भी सावधान बनाऊं।
मुझे याद है कि अज्ञान का अंधेरा कितना विकट होता है। उसमें आंखें खुली हुई हों तब भी देख पाना संभव नहीं होता। हाथ पैरों के मजबूत होते हुए भी वे गड्ढे में गिरा कर हड्डियाँ तुड़वा देते हैं। न जानना इतना बड़ा खतरा होता है जो मौजूद सामर्थ्य को भी समाप्त कर देता है।
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