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होगा। हिंसा को मैं सर्वांशतः हेय मानता हूँ - उसका किसी भी अंश में आचरण करना पड़े तो वह उस आचरणकर्त्ता की दुर्बलता होगी किन्तु किसी भी रूप में हिंसा को कभी भी उपादेय नहीं मान सकते हैं। मूल्यात्मक चेतना की अभिव्यक्ति के पश्चात् उन मूल्यों की सामाजिक प्रतिष्ठा का अर्थ ही यह होगा कि उन मानवीय मूल्यों पर ही सबका आचरण अधिकाधिक निर्भर करे ।
इस बीच मेरे मन में एक प्रश्न उठता है कि क्या मैं यह जाने बिना भी समाज निर्माण के कार्य में संलग्न रह सकता हूँ कि मेरा स्वयं का कोई स्थायी आस्तित्व भी है या नहीं ?
जीवनों की क्रमिकता
कोई कहे कि मैं वर्तमान में जो हूँ, मात्र वही हूँ―न मेरा कोई अतीत है और न कोई भविष्य – तो उस कथन में कितना महत्त्व है—यह गहराई से सोचा जाना चाहिये। जैसी कि एक मान्यता है कि पंचभूतों से ही यह शरीर उपजता है तथा मृत्यु के साथ पुनः पंचभूतों में मिल जाता है। यदि इस जीवन का पहले के जीवन से और आगे आने वाले जीवन से श्रृंखला रूप सम्बन्ध न हो तो क्या किसी की इस जीवन की कार्य सम्पूर्ति में सच्ची अभिरुचि पैदा हो सकती है अथवा बनी रह सकती है ? ऐसी विचारणा के साथ क्यों कोई स्थायी प्रभाव वाला कार्य करना चाहेगा जिसका सीधा लाभ उसे न मिलता हो ? मेरा जन्म-जन्मान्तरों का अनुभव है कि वर्तमान केवल वर्तमान ही नहीं है— वर्तमान का अतीत भी है तो उसका भविष्य भी है। और यही काल की क्रमिकता है । उसी प्रकार जीवनों की क्रमिकता अटूट रहती है जब तक कि आत्मा संसार से मुक्ति न प्राप्त कर ले।
जीवनों की क्रमिकता याने कि जो जीवन आज है, वह इससे पहले भी था तथा आगे भी नये जीवन में प्रादुर्भूत होगा - इस संसार का आधार स्तंभ है । जीवनों की क्रमिकता का तात्पर्य है पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म की विद्यमानता । जीवनों की क्रमिकता की धारणा के साथ ही दीर्घकालीन महत्त्व के कार्य हाथ में लिये जा सकते हैं तथा उनकी सम्पूर्ति में ठोस सहयोग दिया जा सकता है । जीवनों की क्रमिकता मात्र एक धारणा ही नहीं है, अपितु वास्तविकता है। इस जीवन से भी पहले जीवन था और उसमें किये गये कृत्यों का फल आज हमें मिलता है। हमारे वर्तमान जीवन में ऐसी कई घटनाएँ घटित होती हैं जिनके कारणों के सूत्र हमें इस जीवन में खोजने से भी नहीं मिलते हैं । इससे निर्णय निकलता है कि उन घटनाओं के कारण पूर्व जन्म में ही होने चाहिये। इसी प्रकार यह मानना भी उतना ही तर्कसंगत होगा कि इस जीवन के बाद आगे भी और जीवन है याने कि पुनर्जन्म हैं जिसमें इस जीवन में किये जा रहे हमारे कृत्यों का फल मिलेगा। इतना ही नहीं, जीवनों की शृंखला अनन्तकाल से चलती आई है और तब तक चलती रहेगी जब तक कि यह आत्मा जड़ के साथ अपने सम्पूर्ण सम्बन्धों को विच्छेदित नहीं कर लेगी। अपने अस्तित्व की निरन्तरता की धारणा जब स्पष्ट होती है, तभी स्थायी प्रभाव वाले कार्यों में सतत अभिरुचि बनी रह सकती है क्योंकि यह विश्वास होता है कि इन कार्यों का फल भावी जीवन में प्राप्त हो सकेगा ।
मेरा अटल विश्वास है कि 'मैं' सदा काल रहने वाला हूँ। मेरा अस्तित्व स्थायी है। मैं अजर अमर हूँ। मैं अविनाशी हूँ। मेरा यह विश्वास सत्य है क्योंकि आत्म तत्त्व के रूप में मैं एक द्रव्य हूँ जो गुण रूप से शाश्वत होता है—मात्र उसकी पर्यायें परिवर्तित होती रहती हैं। अतः गुण की दृष्टि से 'मैं' शाश्वत हूँ, नित्य हूँ और पर्याय की दृष्टि से 'मैं' परिवर्तनशील भी हूं—अनित्य भी
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