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मैंने सराग संयम का पालन किया, देश-विरति श्रावक धर्म की साधना की, अनिच्छापूर्वक कर्मों की निर्जरा की और अविवेकपूर्ण बालभाव से कायाक्लेश आदि का तप आराधा। मैंने जब देव-जन्म पाया तो मेरा रूप स्वरूप सुदर्शनीय था। मेरी पुष्पमाला कभी नहीं कुम्हलाती थी, नेत्रों के पलक नहीं गिरते थे, देह सदा निर्मल रहती थी और वह भूमि से चार अंगुल ऊपर उठी हुई चलती थी। ये लक्षण मेरे देवत्व के पहचान रूप थे।
देवलोकों का समूचा दिव्य वातावरण मेरे लिये काम भोगों का इतना उद्दीपक था कि मैं इच्छा करते हुए भी मनुष्य लोक में नहीं जा पाता था। मर्त्यलोक की अमनोज्ञता भी मुझे जाने से रोकती थी। उत्पत्ति के तत्काल बाद दिव्य काम भोगों में आसक्ति न करते हुए अपने आचार्य, उपाध्याय आदि को वन्दन करने, ज्ञानियों व तपस्वियों के दर्शन करने अथवा अपने निकट सम्बन्धियों को अपनी नव प्राप्त ऋद्धि-सिद्धि दिखाने के निमित्त से मैं कई बार देवलोक से मनुष्य लोक में पहुँचा भी हूं किन्तु अधिक बार देवलोकों के दिव्य काम भोगों में ही रमता रहा। इस प्रकार देवलोकों के सुखोपभोगों का मैने कई बार रसास्वादन किया।
(किन्तु देव रूप में एक तथ्य मेरे लिये सदैव विचारणीय रहा कि उस जीवन में आत्मविकास की व्रतनिष्ठ कोई भी क्रिया आचरित नहीं की जा सकती थी। केवल शुभ भावनाएँ भायी जा सकती थी पर त्याग-प्रत्याख्यान के नाम पर शून्य ही रहता था। मैं भी इस शून्य का अनुभव करते हुए मनुष्य लोक में उत्पन्न होने की कामना किया करता था।)
आज मुझे जो यह मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है उसके लिये मैंने पहले अपनी प्रकृति को भद्र बनाई थी, स्वभाव को विनय से भरा था, दया और अनुकम्पा के परिणामों को उच्चता दी थी एवं मत्सर, ईर्ष्या आदि दुर्गुणों से मुक्त रहा था। फलस्वरूप यह मनुष्य जन्म मिला ऐसा दुर्लभ मनुष्य जन्म जो आत्म विकास की उच्चतम साधना का एक मात्र क्षेत्र है। संसार परिभ्रमण को घटाने और समाप्त करने का सफल पुरुषार्थ मैं जानता हूँ कि मेरे इसी जन्म में संभव है।
(मुझे अपने गुरुजनों तथा आगमों से ज्ञान मिला है कि मनुष्य जन्म को शास्त्र श्रवण, सुश्रद्धा तथा शुभ पराक्रम के साथ आत्म विकास का अवलम्बन बनाया जाना चाहिये। आज मनुष्य तन में निवास करती हुई मेरी आत्मा दुर्लभ प्राप्तियों के सदुपयोग में प्रयलरत बने एवं बनी रहे इस ओर मैं पूर्ण रूप से सचेष्ट बन जाना चाहता हूँ ताकि मेरे 'मैं' का स्वरूप विकास पाकर निरन्तर उज्ज्वलता की दिशा में गतिशील बन सके।
यह जन्म-जन्मान्तर का क्रम जैसे संसार परिभ्रमण की न टूटने वाली शृंखला है, जिसे तोड़ देने के पक्के उपाय करने की क्षमता मुझे इस मनुष्य जीवन में प्राप्त है और जो कठिन लक्ष्य शक्य होता है उसे पाने के लिये कठोर साधना तो आवश्यक होगी ही।
आखिर यह संसार है क्या? अनादिकाल से जहाँ मेरी आत्मा निरन्तर परिभ्रमण करती हुई आ रही है, इस मनुष्य जन्म में प्राप्त अपने इन्द्रिय तथा मन के विकास के परिप्रेक्ष्य में मेरे लिये यह जानना नितान्त आवश्यक होगा कि आखिर यह संसार है क्या ? इसका क्या स्वरूप है ? इसके प्रांगण में कौन-कौन से तत्त्व संचरण करते हैं और वे अपना. क्या प्रभाव छोड़ते हैं ? तभी यह जाना जा सकेगा कि संसार में
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