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(६) मैं पराक्रमी हूँ, पुरुषार्थी हूँ ।
मुझे सोचना हैं कि मैं क्या कर रहा हूं और मुझे क्या करना चाहिये ?
मेरा आत्मस्वरूप मूल रूप में सिद्धात्माओं जैसा ही है। मुझे देखना और परखना है। कि यह मूल स्वभाव कितना विस्मृत हुआ है तथा विभाव कितना बढ़ गया है ? अपने आन्तरिक स्वरूप एवं जागतिक वातावरण का दृष्टा बन कर मैं शुभ परिवर्तन का पराक्रम दिखाऊंगा, आत्म शुद्धि का पुरुषार्थ प्रकट करूंगा एवं अहिंसा, संयम व तप रूप धर्म को धारण करके विश्व के समस्त प्राणियों के साथ समभाव बनाऊँगा तथा उनमें समभाव जगाऊंगा।
(७) मैं परम प्रतापी, सर्व शक्तिमान् हूं। मुझे सोचना है कि मैं बंधनों में क्यों बंधा हूं? मेरी मुक्ति का मार्ग किधर है ?
अपनी अपार शक्ति से समीक्षण ध्यान में मुझे आत्म-साक्षात्कार होगा कि मैं अष्ट कर्मों के सारे बंधन कैसे तोड़ सकता हूं और मुक्ति के मार्ग पर वीतराग देवों की आज्ञा में रहता हुआ कितनी त्वरित गति से प्रगति कर सकता हूँ? मैं अपनी अनन्त शक्ति की अनुभूति लूंगा, उसे लोक-कल्याण की दृष्टि से सक्रिय बनाऊँगा तथा सर्व शक्तिमान् होने का उपक्रम करूँगा ।
(८) मैं ज्ञानपुंज हूं, समत्त्व योगी हूं।
होता ?
मुझे सोचना है कि मुझे अमिट शान्ति क्यों नहीं मिलती, अक्षय सुख क्यों नहीं प्राप्त
ज्ञान के प्रकाश में मैं अनुभव करूंगा कि मेरा आत्म-समीक्षण एवं विश्व कल्याण का चरण कितना पुष्ट और स्पष्ट हो गया है ? तब मैं एकावधानता से सम्यक् दर्शन ज्ञान व चारित्र की आराधना करूंगा, गुणस्थान के सोपानों पर चढ़ता जाऊँगा और समत्त्व योग के माध्यम से अमिट शान्ति व अक्षय सुख को प्राप्त कर लूंगा ।
(६) मैं शुद्ध, बुद्ध निरंजन हूँ ।
मुझे सोचना है कि मेरा मूल स्वरूप क्या है और उसे मैं प्राप्त कैसे करूं ।
शुद्ध स्वरूप के चिन्तन में मुझे प्रतिभासित होगा कि मैं दीर्घ, ह्रस्व, स्त्री, पुरुष या नपुंसक कहाँ हूं और वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के आकार वाला भी कहां हूँ? मैं तो अशरीरी, अरूपी, शाश्वत, अजर, अमर, अवेदी, असेदी- अलेशी आदि गुणों से सम्पन्न हूँ। इससे मैं गुणाधारित जीवन का निर्माण करूँगा, मनोरथ व नियम चिन्तन साथ ज्ञानी व ध्यानी बनूंगा और अपने मूल स्वरूप को समाहित करने की दिशा में अग्रसर होऊंगा ।
आगे के आध्यायों में इन्हीं नव-सूत्रों का विशद विवेचन किया गया है, इस दृष्टि से जब समीक्षण ध्यान का साधक आत्म-रमण की अवस्था में विचरण कर रहा हो तो वह इस विवेचन को एक बार पढ़े, कई बार पढ़े, बार-बार पढ़े और परिमार्जन वृति को जागृत करते हुए, आत्मानुभूति के सुखद क्षणों का आन्तरिक आनन्द ले। साधक इस विवेचन के साथ अपने अन्तःकरण को एकीभूत बना कर यथार्थ रूप से आत्मालोचना कर सके, आत्मज्ञान ले सके और
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