________________
मन, वाणी एवं कर्म की एकरूपता को प्रोत्साहित करेगा। इस प्रयोग से मनुष्यता को शक्ति मिलेगी तथा जीवन में जड़ तत्त्वों का प्रभुत्व घटेगा। ऐसी एकता केवल बाह्य रूपों में ही नहीं अटक जानी चाहिये बल्कि अनुभावों, उद्देश्यों तथा आदर्शों की एकता के रूप में वह निरन्तर विकसित होती रहनी चाहिये। समता साधक को अपने अन्तःकरण में हो अथवा समाज या राष्ट्र के विशाल अन्तर्हृदय में ऐसी भावात्मक एकता को स्थिरता पूर्वक स्थापित करने के प्रयास हमेशा जारी रखने चाहिये। कारण, भावात्मक एकता चिरस्थायी एवं शान्ति प्रदायक होती है तथा सभी स्तरों पर समता के वातावरण को परिपुष्ट बनाती है।
(१६) लोकतंत्रीय प्रणाली—एक कथन है कि सत्ता मनुष्य को भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूर्णतया भ्रष्ट करती है। इसी दृष्टि से सत्ता को एक या कुछ हाथों से हटाकर सम्पूर्ण जनता को सौंपने के दृष्टिकोण की भूमिका पर ही लोकतंत्रीय प्रणाली का विकास हुआ है। यह पारस्परिक नियंत्रण एवं सन्तुलन की प्रणाली के रूप में शासन को चलाती है तो समाज की सारी व्यवस्था को लोकेच्छा एवं लोकशक्ति के आधार पर चलाने के आदर्श को सामने रखती है। राष्ट्र या समाज का समग्र संचालन जनता द्वारा, जनता के लिये तथा जनता का होना चाहिये—यह लोकतंत्रीय प्रणाली की अन्तःप्रेरणा कही जाती है। सत्ता और सम्पत्ति के निहित स्वार्थी अपने भ्रष्ट एवं विकृत उद्देश्यों के लिये ऐसी सर्वहितकारी प्रणाली का भी दुरुपयोग करने की चेष्टा करते हैं अतः समता साधक को ऐसी प्रवृत्तियों का विरोध करना चाहिये तथा समग्र जनता में स्वस्थ चेतना जगानी चाहिये।
(२०) ग्राम से विश्वधर्म—प्रत्येक समता साधक को ग्राम धर्म, नगर धर्म, समाज धर्म, राष्ट्र धर्म एवं विश्वधर्म की निष्ठा के प्रति सतर्क रहना चाहिये एवं उनके अन्तर्गत पहले अपने कर्तव्यों एवं नियमों का निर्वाह करना चाहिये, फिर अपने उदाहरण को सामने रख कर दूसरों से उनका अनुपालन करवाने की जागरूकता पैदा करनी चाहिये। ऐसा जन मत, प्रभावी रूप से बनाना चाहिये कि इन धर्मों के निष्ठापूर्वक पालन में कोई किसी तरह की दुर्व्यवस्था पैदा नहीं करे तथा किन्हीं उदंड या समाज विरोधी तत्त्वों द्वारा वैसा करने पर अन्य लोग उनके साथ अहिंसक असहयोग का प्रयोग करें।
(२१) समता पर आधारित समाज-एक समता साधक समता के दार्शनिक तथा व्यावहारिक पक्षों के आधार पर निर्मित किये जाने वाले नये समाज की रचना में विश्वास रखे तथा उसके निर्माण में सक्रिय सहयोग प्रदान करे। पहले वह अपने भीतर और बाहर समतापूर्ण वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों का समावेश करे और उसके बाद व्यापक क्षेत्र में रही हुई विषमताओं को समाप्त करने एवं सर्वत्र समतामयी एकरूपता तथा समरसता को संचारित करने में अपना कठोर पुरुषार्थ लगावे। वह अपनी प्रबल प्रेरणा से प्रत्येक व्यक्ति, समूह या संगठन को समता का सशक्त आधार ग्रहण करने के लिये तत्पर बनावे | इसका अन्तिम लक्ष्य यही होगा कि समता का प्रत्येक मानव हृदय में शीतल प्रकाश फैल जाय और एक समता समाज के निर्माण के साथ वह प्रकाश चिरस्थायी स्वरूप ग्रहण करले और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी एवं आगे तक पारम्परिक प्रकाश स्तंभ बन जाय।
आचरण के इन इक्कीस सूत्रों का दोहरा प्रभाव पड़ेगा। एक ओर व्यक्ति इन के अनुसार अपने जीवन-व्यवहार को ढालते हुए अपने आभ्यन्तर और बाह्य जीवन में शुद्धता, शुभता तथा समता की स्थिति को सुस्थिर बनायगा तो दूसरी ओर उसकी उस सुस्थिरता का स्वयमेव भी समाज ४५८