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(य) आत्म विसर्जन-आत्म दर्शन की आखिरी मंजिल होती है आत्म विसर्जन याने कि त्याग, सेवा और समता दृष्टि से बृहत्तर समता -स्थिति के निर्माण हित अपने आपको भी भुला देना
और साध्य में स्वयं को विलीन कर देना। आध्यात्मिक भाषा में यह कायोत्सर्ग की सर्वोच्च तपस्या होगी जब आत्मा देह के ममत्व से भी सर्वथा दूर हो जाती है। इस कठोर तपस्या के माध्यम से आत्म विकास की उस अन्तिम अवस्था को प्राप्त करने के बाद परमात्म दर्शन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
आत्म दर्शन से परमात्म दर्शन तक की यात्रा की सम्पन्नता आत्म विसर्जन के महाद्वार में से होकर गुजरने के बाद ही होती है। यह यात्रा गहन एवं उच्च चिन्तन पर चलती है और कभी कभी विचार श्रेणी इतनी ऊंची एवं समुन्नत बन जाती हैं कि युगों और वर्षों का मार्ग कुछ पलों में ही तय हो जाता है। समता साधना की सफलता के लिये साधक को आत्म विसर्जन रूप उच्चस्थ विचार श्रेणियों में आरूढ़ होने का प्रयत्न करना चाहिये।
(४) परमात्म दर्शन—आत्मा ही परमात्मा होती है तथा आत्मा ही परमात्मा बनती है। आत्मा और उसकी परम अवस्था में जो अन्तर है, वह उसकी कर्मबद्धता का अन्तर है। इस अन्तर को मिटाने अर्थात् कर्मावरणों को अपने ज्योतिस्वरूप पर से हटाने के बाद यही आत्मा ज्योतिस्वरूप परमात्मा बन जाती है। परमात्म दर्शन का यही सारपूर्ण सिद्धान्त है।
इस दृष्टि से परमात्म दर्शन की मूल प्रेरणा कर्मण्यता है कि आत्मा अपनी कर्मण्यता जगाकर ऐसे कर्म (पुरुषार्थ) करे कि कर्मों के पूर्व संचित दलिक सम्पूर्णतः नष्ट हो जाय। कोई अन्य शक्ति इस आत्मा का उद्धार करेगी-ऐसी वस्त स्थिति नहीं है। यह आत्मा स्वयं ही स्वयं को सजग बनाकर अपना उद्धार करेगी और वैसा उद्धार उसकी अपनी ही कर्मण्य शक्ति पर आधारित होगा।
स या विकास का चरम बिंदु इस आत्म शक्ति की पहुंच के बाहर का साध्य नहीं होता है। वस्तुतः आत्म शक्ति के शब्द कोष में असंभव शब्द होता ही नहीं है। इस दृष्टिकोण से मानव जीवन में सत्साहस की वृत्ति अपार महत्त्व रखती है। कायरता के लिये सब कुछ असंभव है और साहस के लिये सब कुछ संभव। आत्मा से परमात्मा तक का लक्ष्य इसी सत्साहस की समतापूर्ण उपलब्धि के रूप में प्रकट होता है।
मनुष्य जब तक संज्ञाशून्य होकर पतन के खड्ड में गिरा रहता है, तब तक उसके जीवन के सभी पहलू और उसकी सभी शक्तियां विषम बनकर विकास की अवरोधक के रूप में अड़ी रहती हैं। विषमता की अवस्था में अधिकाधिक विकारों का आक्रमण होता रहता है और आत्म शक्ति उनसे परास्त होकर हताशा में डूबी रहती है किन्तु जिस क्षण कायरता दूर होकर सत्साहस का प्रादुर्भाव हो जाता है, उसी क्षण विकास के चरण गतिमान हो जाते हैं।
आत्मा का ऐसा सत्साहस कैसे प्रकट हो? कहते हैं कि चोर कायर होता है, क्योंकि उसके पैर कच्चे होते हैं। यदि अपने भीतर कायरता महसूस करते हैं तो सोचना होगा कि अपने भीतर किन किन रूपों में चौर्य्य वृत्तियां अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों में लगी हुई हैं और उनके कारण अपनी आत्म शक्ति के पैर कहां कहां कच्चे पड़े हुए हैं ? यह अपनी ही आत्मा की आलोचना का विषय है और अपने ही जागरण का प्रश्न है। जो काम छिप कर करने की इच्छा होती है, जिन विचारों को सहजतापूर्वक प्रकट नहीं किये जा सकते हों अथवा जिन शब्दों को निर्भयता से बोलने की क्षमता न हो तो
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