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(र) मानवता प्रधान व्यवस्था — समता के सिद्धान्त दर्शन का निचोड़ यह होगा कि वर्तमान समाज व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हो और उस परिवर्तन का लक्ष्य यह हो कि शासन जड़ का नहीं, चेतन का हो, सत्ता और सम्पत्ति का नहीं, मानवता का हो। अर्थ की प्राप्ति से नहीं, मानवीय गुणों की उपलब्धि से समाज या राज का नेतृत्व प्राप्त होना चाहिये । मूलतः मानवता प्रधान व्यवस्था का गठन करना होगा ।
मानवता प्रधान व्यवस्था से सम्पत्ति व सत्ता के स्वामी को नहीं, मानवीय गुणों के साधक को प्राण प्रतिष्ठा मिलेगी और गुणवत्ता अनुप्राणित होगी । तब सम्पत्ति और सत्ता पाने की छिछली व घिनौनी होड़ भी खत्म हो जायगी तो वास्तव में विषमता के कीटाणु भी नष्ट हो जायेंगे। तब चेतना, मनुष्यता तथा कर्मनिष्ठा की प्रतिष्ठा होगी और सर्वहित में जो जितना ज्यादा त्याग करेगा, वह उतना ही पूजा जायगा । सम वातावरण में दृष्टि सम बनेगी तथा समदृष्टि वस्तु स्वरूप की यथार्थता को देख सकेगी। यह अवलोकन अन्तरावलोकन बन कर आत्मोत्थान का कारण भूत हो जायगा ।
(२) जीवन दर्शन - वही सिद्धान्त प्रेरणा का स्रोत बन सकता है जो तदनुकूल कार्य क्षमता को जागृत करे। ज्ञान और क्रिया का संयोग सिद्धि के लिये अनिवार्य है । यह युति ही मनुष्य को सर्व प्रकार के बंधनों से मुक्त बना सकती है। चाहे वे बन्धन कैसे भी हों – पूर्वार्जित कर्मों के रूप में हों अथवा विषमता एवं तज्जन्य विकारों से ही क्यों न उपजे हों, व्यक्तिगत एवं समाजगत शक्तियों के ज्ञान एवं क्रिया के क्षेत्र में साथ साथ कार्यरत होने से विकास में भी विषमता नहीं रहेगी । इससे यह नहीं होगा कि कुछ व्यक्ति तो अपनी उग्र साधना के बल पर विकास की चोटी पर चढ़ जावें और बहुसंख्यक लोग पतन के गढ्ढे में बेभान पड़े रहें । विकास की चोटी पर चढ़ने वाले तो तब भी होंगे किन्तु जीवन विकास की अपेक्षा से सभी लोगों का मुख अवश्य ही चोटी की तरफ होगा और पांव धीमे या जल्दी उधर आगे बढ़ रहे होंगे।
व्यवहार, अभ्यास एवं आचरण के चरण उठाते समय समग्र वस्तु ज्ञान को तीन भागों में विभाजित करके तदनुसार अपने क्रिया कलापों को दिशा दी जाय। ये विभाग हो - ज्ञेय (जानने लायक), हेय (त्यागने लायक) और उपादेय ( स्वीकारने और आचरने लायक ) । सब जानो किंतु जीवन में उतारो उनको ही जो उतारने लायक हों। वर्तमान हेय को छोड़ने तथा उपादेय को ग्रहण करने का क्रम साथ- साथ ही चलेगा जैसे ज्यों-ज्यों विषम आचरण छूटता जायगा, त्यों-त्यों समता का आचरण पुष्ट तर बनता जायगा । समस्त वस्तु ज्ञान का यह त्रिरूपी विभाजन सबसे पहले समता साधक को स्वयं समझना चाहिये तथा निम्नानुसार अपने आचरण को ढालना चाहिये:
(अ) सप्त कुव्यसन त्याग — मांस भक्षण, मदिरा पान, जुआ, चोरी, शिकार, परस्त्रीगमन और वेश्यागमन ये सात कुव्यसन बताये गये हैं जो सब या एक भी जब व्यक्ति के जीवनाचरण में प्रवेश पा जाता है तो वे उस जीवन को गुणवत्ता की दृष्टि से नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं । अतः आचरण शुद्धि के पहले पग के रूप में सप्त कुव्यसन का त्याग लिया जाना चाहिये। ये कुव्यसन जहां व्यक्ति के जीवन को घोर पतन में तिरोहित करते हैं, वहां समाज के वातावरण को भी कलंकित बनाते हैं । इनके रहते सभी ओर पतन की संभावनाओं को स्थायी भाव मिलता है अतः इनके त्वरित परित्याग की ओर कदम शीघ्रातिशीघ्र आगे बढ़ने ही चाहिये । इसके लिये संयम की मुख्य धारा से अपने आपको जोड़ना होगा ।
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