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पहले आती ही नहीं है। समता तो शुरू हो जाती है सम्यक् दृष्टि के आगमन के साथ ही, जो तदनन्तर दृष्टि और कृति में समुन्नत बनती रहती है। अपनी पूर्णता की प्रक्रिया में समता अपने साधक के आचरण को संयमित और सन्तुलित बनाती है तो उसके अन्दर-बाहर को सुधारती है। साधक का ऐसा संशोधित जीवन बाहर की दुनिया में भी नये नये सुधारों को प्रेरणा देता है। इस प्रकार समता का सर्वांगीण स्वरूप क्रियान्विति में अभिवृद्ध होता रहता है।
विषमता का मूल व विस्तार विषमता भी दृष्टि और कृति में होती है तथा उसका मूल भी विभाव के रूप में मानव-मन में ही उभरता है। मन का यह वैभाविक मूल ही मन के भीतर, मन के बाहर, अपने आसपास के वातावरण में तथा समाज, राष्ट्र व विश्व में विस्तार पा लेता है।
. एक प्रश्न उठता है कि समता स्वाभाविक है अथवा विषमता? स्वभाव उसे कहते हैं जो अपने भाव में अपने विचार में अच्छा लगे। इस अच्छेपन की कसौटी कहीं बाहर नहीं होती और न ही इस अच्छेपन पर फैसला कोई बाहर वाला दे सकता है। यह आत्मानुभव का विषय है। व्यक्ति स्वयं ही अपने स्वभाव की परख करता है। किन्तु यहां एक समस्या भी पैदा होती है। क्या व्यक्ति सदा ही सही परख कर सकता है या कर लेता है ? बाहर के क्रिया कलापों से ऐसा नहीं दिखाई देता। कइयों को वास्तव में वैसा आचरण करते हुए देखते हैं जो उनका स्वभाव नहीं होना चाहिये फिर भी वे उसे अपना स्वभाव मान कर वैसा आचरण करते हैं। यह क्या है ? यह भ्रमपूर्ण दशा होती है जिसमें जो स्वभाव नहीं होता, उसे स्वभाव मान लिया जाता है। इसे ही विभाव कहते है—अपने भाव से विपरीत भाव।
प्रश्न उठता है कि इस स्वभाव-विभाव को जांचेगा कौन और कौन विभाव को मिटाने की प्रेरणा देगा? यह सब अपना खुद का मन अपनी आत्मा ही करेगी। यह सही है कि व्यक्ति विपरीत आचरण करता है—विषमता से खुल कर खेलता है और फिर भी चेतता नहीं है, किन्तु यह उसका विभाव ही होता है। एक क्रूर से क्रूर व्यक्ति को भी उसके दिल की बात पूछो तो वह कहेगा कि किसी की दयापूर्ण सहायता का वह छोटा सा काम भी कर लेता है तो उसे मन में खुशी होती है। लेकिन अपने स्वार्थ के लिये या अन्य किसी परिस्थिति के वशीभूत होकर वह क्रूर और हिंसक कार्य करता है। इसमें भी वह अपने मन को मारता है। क्रूर कर्म के पहिले या बीच-बीच में उसके अन्तर्मन से यह आवाज जरूर उठती है कि वह ऐसा न करे, किन्तु उस आवाज को वह अनसुनी कर देता है और धीरे-धीरे उसकी वह आत्मा की आवाज उपेक्षित होकर दब जाती है तब यों समझिये कि उसका स्वभाव भी दब जाता है। स्वभाव नष्ट नहीं होता, दबता ही है, इस कारण दबे हुए स्वभाव को फिर से प्रकट करने के लिये चहुंमुखी प्रयासों की आवश्यकता होती है। व्यक्ति में भी जागृति लाई जाय और सामूहिक वातावरण में भी ऐसा सुधार कि जहां विभाव की अवमानना हो और स्वभाव को प्रोत्साहन मिले । मुख्यतः पहिचान और विभाव परिवर्तन की प्रेरणा अपने ही भीतर से उठनी चाहिये, क्योंकि भीतर से उठी हुई प्रेरणा ही कर्मठतापूर्वक क्रियाशील होती है।
विषमता और विभाव एक दूसरे को फैलाने वाले होते हैं। व्यक्ति जब अपने विचार, वचन तथा कार्य में स्वभाव से फिसलता है, तब उसके मन में विभाव अपनी जड़ें जमाता है और जिस रूप में विभाव फैलता है, उतनी ही विषमता उग्र रूप धारण करती है। मन से उपजी हुई विषमता
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