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व्यक्ति को या एक आत्मा को अपने शुभ संस्कारों से बिगड़ या गिर कर अशुभता से लिप्त हो जाने के लिये विवश तो न होना पड़े। जीवन के उद्भव और संचरण का दृष्टिकोण यही है कि वर्तमान जीवन के उद्भव से लेकर संचरण तक के बाह्य वातावरण को अधिकाधिक समतामय बनाने का सुप्रयास किया जाय जिससे सुप्रभावित होकर भव्य आत्माएं सरलता एवं सहजतापूर्वक ऊर्ध्वगामी बनें तथा समतादर्शन की सर्वोच्चता को साध सकें ।
मनुष्य के जीवन का उद्भव उसकी गर्भावस्था से ही हो जाता है। गर्भावस्था में भी बालक नये संस्कारों को अपनी माता की चेतना के माध्यम से ग्रहण करता है। महाभारत काल में अभिमन्यु इसका ज्वलन्त उदाहरण माना जाता है जिसने गर्भावस्था में चक्रव्यूह में प्रवेश करने की विधि तो जान ली किन्तु उसको भेद कर बाहर निकल आने की विधि न सुन पाने से उससे अज्ञात रही, फलस्वरूप उसके जीवन में जब चक्रव्यूह को भेदने का अवसर आया तब वह उसमें प्रवेश तो कर गया किन्तु वापस बाहर नहीं निकल सका। कहने का अभिप्राय यह है कि गर्भावस्था में भी बालक की चेतना बाह्यवातावरण से बहुत कुछ संस्कार ग्रहण करती है । फिर जन्म ले लेने के बाद बालक अपने आसपास के वातावरण से भी सीखता है और ज्यों-ज्यों उसकी आयु बढ़ती है, उसके सीखने का क्षेत्र भी विस्तृत होता जाता है। इसीलिये कहा जाता है कि बालक को यदि शुभ संस्कारों से भरा-पूरा वातावरण दिया जाय तो उसका निर्माण श्रेष्ठ संस्कार युक्त जीवन के रूप में किया जा सकता है। बाल-शिक्षा का इसी दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व भी माना जाता है कि एक कुम्हार गीली मिट्टी को चाहे तो दीवड़ में बदल सकता है और चाहे तो मल - पात्र में या कोमल टहनी को ऊपर उठाकर ऊपर बढ़ने की दिशा में मोड़ सकते हैं तो नीचे झुकाकर भू लुंठित कर सकते हैं । बालक को इस रूप में गीली मिट्टी या कोमल टहनी मानकर उसके जीवन को सुरचनात्मक बनाने का प्रयास किया जाता है ।
यह सुप्रयास इसी दिशा का परिचायक है कि जीवन का उद्भव उसके भावी संचरण की स्वस्थ प्रक्रिया में ढाला जाय जिससे उस जीवन का श्रेष्ठ निर्माण तो वैसे स्वस्थ वातावरण में पलने वाले सभी जीवनों का श्रेष्ठ निर्माण हो और फलस्वरूप एक समूह, एक वर्ग, एक समाज और परिणामतः सकल विश्व का वातावरण स्वस्थ बने तथा उसमें जन्मने और पलने वाले बालकों के जीवन का श्रेष्ठ निर्माण हो । कम से कम जीवन के उद्भव की श्रेष्ठता उसके भावी संचरण में बनी रहे - इतना प्रयास तो सफल बने ही । जीवन निर्माण की ऐसी श्रेष्ठता ही मन, वाणी और कर्म में समाहित होकर समता की आदर्शता तक प्रतिफलित हो सकती है।
इस विश्लेषण दो परस्पर विरोधी तथ्य उभर कर सामने आते हैं। एक तो यह कि वर्तमान समय में विश्व में विविध प्रकार की विषमताओं ने अति ही जटिल स्वरूप ले रखा है तो दूसरे, उसके बावजूद सामान्य जीवन में यह शुभाकांक्षा और किन्हीं अंशों में यह शुभ चेष्टा विद्यमान है कि नई पीढ़ी के बालकों में श्रेष्ठ संस्कारों का निर्माण हो– उन्हें शुभ, सुभग एवं समुन्नतकारी शिक्षा मिले। एक निराशाजनक स्थिति है तो दूसरी आशापूर्ण । अतः यह आवश्यक है कि वर्तमान विश्व में फैली और फैलती जा रही विषमताओं तथा उनके कारणों का आकलन किया जाय और यह निर्णय लिया जाय कि क्या इस वातावरण में सामान्य रूप से ही सही, किन्तु शुभतामय परिवर्तन लाया जा सकता है ? क्या परिवर्तन की ऐसी संभावना में, नई पीढ़ी के संस्कारों को अधिक शुभता के ढांचे में ढालकर समता के वातावरण 'अधिक पुष्ट बनाया जा सकता है ?
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