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ही गुण प्रकाशित होता है किन्तु गुण और गुणी के भेद में किसको श्रेष्ठतर माना जाय ? जैसे क्षमा एक गुण है। इसके स्वरूप का विवेचन करते समय इस गुण के सभी पहलुओं पर विचार करेंगे तथा इसके सर्वोत्कृष्ट विकास का भी प्रतिमान लेंगे, क्योंकि इसी प्रतिमान के आधार पर यह निर्णय लिया जा सकेगा कि किस व्यक्ति में यह क्षमा गुण कितने अंशों में विकसित हुआ है ? सामान्य रूप से भिन्न भिन्न व्यक्तियों में मूल्यांकन करने पर इस क्षमा गुण का विकास भिन्न भिन्न स्तरों का मिलेगा। अतः गुण का विकास भिन्न-भिन्न गुणियों में भिन्न-भिन्न रूप से परिलक्षित होता है। गुणी का सम्मान या उसकी मान्यता इस दृष्टि से गुण-विकास पर आधारित रहती है।
गुण और गुणी में इस प्रकार गुण की प्रमुखता मानी जानी चाहिये क्योंकि गुण का सर्व स्वरूप गुणी के समक्ष आदर्श रूप होता है और गुणी की सर्वोत्कृष्ट सफलता तभी मानी जाती है जब वह गुण के उस आदर्श रूप को आत्मसात् करले । गुण को प्रमुखता देने से गुण –गौरव तथा गुण ग्राहकता में वृद्धि होती रहती है। आध्यात्मिक उन्नति के उपरोक्त पांचों प्रतीक भी गुण वाचक हैं
और गुणों को सर्वोच्च सम्मान देने की दृष्टि से ही नमस्कार महामंत्र को सर्वोच्च महिमा प्रदान की गई है।
गुणवत्ता की कसौटी पर ही पांचों पदों का विश्लेषण इस सत्य को स्पष्ट कर देता है कि आत्मा किसी व्यक्तिविशेष को नमस्कार नहीं करती बल्कि गुण विकास को ही नमस्कार करती है । इस रूप में विशिष्ट से विशिष्ट हो किन्तु व्यक्ति की प्रभुता आत्मानुभूति को दबा नहीं पाती है। गुण दृष्टि ही बनी रहती है जिससे गुण ग्रहण करने की प्रेरणा भी बनी रहती है। दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मा स्वयं को ही नमस्कार करती है—अपनी ही इच्छित अथवा संभावित अवस्थाओं को नमस्कार करती है कि वे अवस्थाएं उसके निज स्वरूप में उद्घाटित हों।
गुण दृष्टि को प्रधानता देने में एक और तथ्य या सत्य उभर कर समक्ष उपस्थित होता है और वह यह कि यह आत्मा और मात्र आत्मा ही सर्वोत्कृष्ट विकास की मूल है -कोई और कैसा भी व्यक्तित्व इस की प्रमुखता को आच्छादित नहीं कर सकता है। कई बार और कई स्थानों पर देखा जाता है कि व्यक्ति का वर्चस्व बढ़ता जाता है और उस वर्चस्व से प्रभावित व्यक्ति अपने महत्त्व को खोते हुए चले जाते हैं। कई बार राजनीति के क्षेत्र में भी ऐसा होता है कि एक व्यक्ति का वर्चस्व सर्व प्रमुख हो जाता है और उसके शासन या दल के अन्य सदस्य उसके सामने अपना महत्त्व यहां तक कि प्रभावपूर्ण अस्तित्व तक खो देते हैं। कहा जाता है कि बरगद के पेड़ की छाया में कोई दूसरा पौधा नहीं पनपता। व्यक्तिवादी वर्चस्व की ऐसी ही विदशा को समझ कर वीतराग देवों ने सम्पूर्ण संघ व्यवस्था को गुणाधारित स्वरूप प्रदान किया। गुण की ही महिमा, गुण की ही स्तुति और गुण को ही नमस्कार और इसी श्रेष्ठता के उच्चतम स्वरूप में पांचों पद भी गुण विकास के क्रम पर आधारित हैं। गुणी कोई भी हो, वह वन्दनीय है। विकासशील आत्मा उस गुण का सम्यक् रीति से अनुपालन कर सके। उसके समक्ष गुणी का व्यक्तित्व कम और गुण-स्वरूप की श्रेष्ठता अधिकांश में रहनी चाहिये।
संसार में रहते हुए गुण विकास के श्रेष्ठ प्रतीक होते हैं अरिहन्त । यह अरिहन्त किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं, आत्मिक अवस्था विशेष का नाम है कि जिन्होंने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अन्तराय रूप चार घनघाती कर्मों का नाश करके केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन को प्रकट
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