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बन जाते हैं कि प्रगति करने की उनकी जिज्ञासा दब जाती है एवं उनके मन-मानस पर भ्रान्ति का कोहरा जम जाता है। वे यह समझ लेते हैं कि दुनिया में एक उन्हीं की साधना सिद्ध हुई है, अब किसी दूसरे से कुछ भी ज्ञान लेने की उन्हें आवश्यकता नहीं। उनका अहंभाव उन्हें किसी के सामने झुकने नहीं देता, क्योंकि कोई शंका उत्पन्न होने पर भी वे उसका समाधान लेने में अपने मानदंड की हानि समझने लग जाते हैं। वे सोचते हैं कि अपनी शंका का निवारण यदि किसी अन्य साधक से वे करवाने का यत्न करेंगे तो दूसरे साधक उन की पूर्णता में सन्देह करने लग जायेंगे। ऐसी विडम्बना में ग्रस्त होकर अहंभाव के कारण ये साधक अपनी सम्पादित प्रगति पर पानी फेर देते हैं।
साधक के मन में समाई वह अहं वृत्ति उसकी दुर्बलता को न तो प्रकट होने देती है और न सुधरने का अवसर देती है। वह अहं वृत्ति बाहरी दुनिया में यश लूटने के काम में साधक को बुरी तरह से लगा देती है और उसमें यह भ्रम भरा हुआ रखती है कि वह अपनी परिपूर्णता का स्वामी बन चुका है। ऐसी अहंवृत्ति के अधीन हो जाने वाला साधक अपने पवित्र साधना-क्षेत्र से स्खलित हो जाता है और उसने जिन आत्मशक्तियों की तब तक उपलब्धि कर ली थी, वे आत्मशक्तियाँ भी उससे छिन जाती है। अहंभाव से भर उठने के कारण साधक की साधना 'कातापींजा कपास' की तरह हो जाती है। इसलिये प्रत्येक बिंदु पर साधक को अपार धैर्य धारण करके रहना चाहिये। फिर से पतित हो सकने वाली सीमा तक तो साधक अपूर्व धीरज के साथ दृढ़तापूर्वक चले ही यह आवश्यक है। मोक्ष के राजमार्ग पर चलते हुए उस सीमा तक उसके पाँव डगमगावे नहीं, इस हेतु उसे अपने समीक्षण ध्यान की दृष्टि को तेजस्विता से ओतप्रोत रखनी चाहिये। वह रंगबिरंगे दृश्यों को भी निरन्तर तत्परता के साथ देखे किन्तु उनके पीछे आशक्त न बने, आगे से आगे बढ़ते जाने का यत्न ही करता रहे। उसके इस प्रयत्न में यदि निरंतरता बनी रह जाय तो वह कभी न कभी अपने गंतव्य तक पहुँच जायगा-ऐसी सुनिश्चित आशा बंध जाती है।
इस सारे विश्लेषण का स्पष्ट आशय यह है कि साधक को अपनी साधना के किसी भी स्तर पर अहंभाव से मंडित नहीं होना चाहिये। अहंभाव के उठते ही वह उसको विसर्जित करता हुआ आगे बढ़े। साधक के लिए अपनी साधना की सूक्ष्म परिधि में प्रवेश करने से पहले यह आवश्यक है कि वह अपनी शक्ति तथा श्रद्धा, अपने धैर्य तथा संकल्प को अच्छी तरह दृढ़ीभूत बना ले और समीक्षण ध्यान के सबल माध्यम से अपनी सम्पूर्ण मनोवृत्तियों को एकाग्रता के अनुशासन में सुव्यवस्थित रूप प्रदान कर दे।
एकावधानता का प्रयोग मनोनियंत्रण के रूप में की जाने वाली समीक्षण ध्यान की साधना यथार्थ रूप में अन्तर्यात्रा की ही साधना है यह स्पष्ट हो चुका है। इस यात्रा में अहंभाव के विसर्जन के बाद जिस शक्ति की आवश्यकता होती है, वह है एकाग्रता अथवा एकावधानता की शक्ति। जब तक एकावधानता का प्रयोग सफल नहीं बनता है, तब तक आत्मशक्तियों का संचय संभव नहीं होता है। इसका यह अर्थ है कि एकाग्रता अथवा एकावधानता की साधना भी समीक्षण ध्यान साधना की ही अंगभूत है, जिसका प्रारंभ भी विधिपूर्वक किया जा सकता है।
एकावधानता कई प्रकारों अथवा कई विधियों द्वारा साधी जा सकती है। कोई किसी ध्वनि के माध्यम से किसी मंत्र की एकावधानता साधते हैं तो कोई बिन्दु-दर्शन पर अपनी दृष्टि को केन्द्रित
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