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शरीर कृति में रहते हुए मोक्ष में जाने वाली आत्माएं पुरुष लिंग सिद्ध होती हैं। (१०) नपुंसक लिंग सिद्ध-नपुंसक की शरीर कृति में रहते हुए मोक्ष जाने वाले नपुंसक लिंग सिद्ध हैं। (११) स्वलिंग सिद्ध—निपँथ साधु का वेश स्ववेश (स्वलिंग) होता है अतः साधु के वेश में रहते हुए मोक्ष जाने वाले स्वलिंग सिद्ध कहलाते हैं। (१२) अन्यलिंग सिद्ध–परिव्राजक आदि के वल्कल, गेरुए वस्त्र आदि द्रव्य लिंग (अन्य वेश) में रह कर मोक्ष में जाने वाली आत्माएं अन्य लिंग सिद्ध कहलाती हैं। (१३) गृहस्थलिंग सिद्ध-गृहस्थ के वेश में मोक्ष जाने वाली आत्माएं गृहस्थ लिंग (गृहीलिंग) सिद्ध कहलाती हैं। (१४) एक सिद्ध–एक एक समय में एक एक मोक्ष जाने वाली आत्माएं एक सिद्ध होती हैं। तथा (१५) अनेक सिद्ध —एक समय में एक से अधिक मोक्ष जाने वाली आत्माएं अनेक सिद्ध कहलाती हैं। एक समय में अधिक से अधिक कितनी आत्माएं मोक्ष में जा सकती हैं इसके विषय में विस्तार से बताया गया है। संक्षेप में एक समय से आठ समय तक अधिकतम बत्तीस तक आत्माएं मोक्ष में जा सकती हैं। फिर निश्चित रूप से अन्तरा पड़ता है।
मैं अपने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध हो जाता हूं तो कर्मों के दुष्प्रभाव से जो आत्मिक शक्तियां दबी हुई रहती थीं, वे सम्पूर्ण प्राभाविक बनकर पूर्णतः प्रकट हो जाती हैं। कर्म मुक्ति से सिद्ध पद में निम्न आठ गुण पूर्ण आत्म विकास के रूप में प्रकाशित हो जाते हैं(१) केवल ज्ञान -ज्ञानावरणीय कर्म का पूरी तरह नाश हो जाने से आत्मा का ज्ञान गुण अपनी पूर्ण आभा के साथ प्रकट हो जाता है जिसके प्रभाव से केवल ज्ञानी महात्मा सकल पदार्थों को जानने लगती हैं। (२) केवल दर्शन- दर्शनावरणीय कर्म के समूल नाश से आत्मा का दर्शन गुण पूर्णतया प्रकट हो जाता है जिससे सभी पदार्थों को देखने की शक्ति अनावृत्त हो जाती हैं (३) अव्याबाध सुख-आत्मा वेदनीय कर्म के प्रभाव से वेदना का अनुभव करती है, यद्यपि साता वेदनीय कर्म से सुख का अनुभव भी होता है, किन्तु वह सुख क्षणिक, नश्वर, भौतिक और काल्पनिक होता है जबकि वास्तविक एवं स्थायी आत्मिक सुख की प्राप्ति वेदनीय कर्म के नाश से ही होती है। इस कर्म के सम्पूर्ण विनाश से जो अनन्त सुख प्राप्त होता है, वह अव्याबाध होता है, क्योंकि उस सुख के अनुभव में कभी भी कोई बाधा नहीं आती है। (४) अक्षय स्थिति -आत्मा की इसी को अक्षय स्थिति कहते हैं कि मोक्ष में पहुँच कर आत्मा वापस इस संसार में नहीं आती, शाश्वत रूप से वहीं रहती है। संसार में आयु-कर्म का प्रभाव चलता है, इस कारण एक जन्म में जितना आयुष्य बंधा हुआ होता है, उसे भोगकर आत्मा को वहां से दूसरी गति में जाना ही पड़ता है किन्तु सिद्धात्माओं का आयु-कर्म ही नष्ट हो जाता है अतः मोक्ष में स्थिति की कोई मर्यादा नहीं रहती अतः मोक्ष की स्थिति ही अक्षय स्थिति मानी गई है। (५) क्षायिक सम्यक्त्व-सिद्धात्माओं के मोहनीय कर्म पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है जबकि मोहनीय कर्म ही सम्यक्त्व गुण का घातक होता है। सम्यक्त्व का अर्थ है जीव, अजीव आदि पदार्थों को उनके यथार्थ रूप में जानना तथा जान कर उन पर विश्वास करना। अतः मोहनीय कर्म के अभाव में पूर्ण सम्यक्त्व का सद्भाव हो जाता है तथा पूर्ण सम्यक्त्व ही क्षायिक सम्यक्त्व होता है। सिद्धात्माओं में यही क्षायिक सम्यक्त्व सदा वर्तता है। (६) अरूपीत्वबाहर से दिखाई देने वाले रूप की रचना नाम कर्म के उदय से शरीर रूप में होती है और दृष्टिगत रूप ही रूपीपना कहलाता है। चूंकि सिद्धात्माओं के नाम कर्म का भी नाश हो जाता है अतः उनके किसी प्रकार का शरीर नहीं रहता। संसारी जीवों के कार्मण आदि शरीरों का सम्मिश्रण हमेशा रहता
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