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(E) मैं विविध प्रकार के अशन पान आदि मिलने पर साधर्मी साधुओं को निमंत्रित करके स्वयं आहार करता हूं और स्वाध्याय में लग जाता हूं। (१०) मैं क्लेश उत्त्पन्न करने वाली बातें नहीं करता, किसी पर क्रोध नहीं करता, निज इन्द्रियों को चंचल नहीं होने देता, सदा प्रशान्त रहता हूं, मन, वचन, काया को दृढतापूर्वक संयम में स्थिर रखता हैं. कष्टों को शान्ति से सहता हं तथा उचित कार्य का अनादार नहीं करता है। (११) मैं इन्द्रियों को कंटक के समान दःख देने वाले आक्रोश. प्रहार तथा तर्जना आदि को शान्ति से तथा भय, भयंकर शब्द व प्रहास आदि के उपसर्गों को समभाव से सहता हूं। (१२) मैं श्मशान में प्रतिमा अंगीकार करके भूत, पिशाच आदि के भयंकर दृश्यों को देखकर भी विचलित नहीं होता हूं और विविध प्रकार के तपाराधन में शरीर की चिन्ता नहीं करता हूं। (१३) मैं अपने शरीर के ममत्व को भी छोड़ देता हूं -बार बार धमकाये जाने पर, मारे जाने पर या घायल हो जाने पर भी शान्त रहता हूं तथा निदान या कौतूहल के बिना पृथ्वी के समान सभी कष्टों को समभाव पूर्वक सहता हूं। (१४) मैं अपने शरीर से परीषहों को जीत कर अपनी आत्मा को जन्म-मरण के चक्र से निकालता है. जन्म मरण को महाभय समझ कर तप और संयम में लीन रहता हूं। (१५) मैं अपने हाथ, पैर, वचन और इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखता हूंसदा आत्म चिन्तन करता हुआ समाधि में लीन रहता हूं एवं यथार्थ को अच्छी तरह से जानता हूं। (१६) मैं भंडोपकरण आदि उपधि में किसी प्रकार की मूर्छा या गृद्धि नहीं रखता हूं, अज्ञात कुल की गोचरी करता हूं। चारित्र का घात करने वाले दोषों से अलग रहता हूं। मैं क्रय, विक्रय या सन्निधि से दूर रहता हूं और सभी प्रकार के संगों से अलग रहता हूं। (१७) मैं चंचलता रहित होता हूं, रसों में गृद्ध नहीं होता हूं, जीवित रहने की भी अभिलाषा नहीं रखता हूं तथा ज्ञान आदि गुणों में आत्मा को स्थिर करके निश्छल वृत्ति से ऋद्धि, सत्कार, पूजा आदि की इच्छा नहीं रखता हूं। (१८) मैं दूसरे को कुशील नहीं कहता या ऐसी भी कोई बात नहीं कहता जिससे उसे क्रोध आवे और पुण्य व पाप के स्वरूप को जानकर मैं अपने को बड़ा नहीं मानता। (१६) मैं जाति, रूप, लाभ व श्रुत का मद नहीं करता और सभी मद त्याग कर धर्मध्यान में लीन रहता हूं। (२०) मैं वीतराग देवों के सिद्धान्तों का सुपाठक हूं तथा धर्म का शुद्ध उपदेश देता हूं, स्वयं धर्म में स्थिर रहकर दूसरों को स्थिर करता हूं एवं दीक्षित होकर कुशील, आरंभ आदि छोड़ कर निन्दनीय परिहास या कुचेष्टाएं नहीं करता हूं। (२१) मैं भावना भाता हूं कि उपरोक्त गुण-सम्पन्नता प्राप्त करते हुए मैं इस अपवित्र और नश्वर देहवास को छोड़कर मोक्षरूपी हित में अपने को स्थिर करके जन्म मरण के बंधन को तोड़ दूं तथा ऐसी गति में जाऊं जहां से वापस आगमन न हो अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लूं।
मैं सर्वविरति साधु के रूप में तीन मनोरथों का चिन्तन करता हूं कि (१) कब वह शुभ समय आवेगा जब मैं अल्प या अधिक शास्त्र-ज्ञान सीलूँगा (२) कब वह शुभ समय आवेगा, जब मैं एकल विहार की भिक्षु प्रतिमा (भिक्खू पडिमा) अंगीकार कर विचरूंगा तथा (३) कब वह शुभ समय आवेगा जब मैं अन्त समय में संलेखना स्वीकार कर, आहार पानी का त्याग कर, पादोपगमन मरण अंगीकार कर जीवन मरण की इच्छा नहीं करता हुआ विचरूंगा।
मैं अपने अभिग्रह विशेष रूप भिक्षु प्रतिमाएं अंगीकार करूंगा। ये प्रतिमाएं बारह हैं जो सात एक से लेकर सात मास तक की जाती हैं तथा आठ से दस सात दिवस रात्रि तक और ग्यारहवीं एक अहोरात्रि तक एवं बारहवीं प्रतिमा केवल एक रात्रि तक की होती हैं। बारह प्रतिमाएं इस प्रकार हैं—(१) पहली प्रतिमा में एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है।
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